खुद को दर्पण में देख निकालें दूसरों के खोट

योगेन्द्र नाथ शर्मा 'अरुण
एक बड़ा ही मौजू सा शेर है -दिल में है तस्वीरे यार, जब जरा गर्दन झुकाई, देख ली। सच भी यही है कि ईश्वर ने हम सभी को बाहर की दो आंखों के साथ ही एक तीसरी आंख भी दी है, जिसे हम अन्तर्मन कहते हैं। हमारा यह अन्तर्मन हमें सदैव सच दिखाता है। हमारे आदरणीय कहा करते थे कि अगर तुमने किसी को धोखा दिया है और तुम्हें लगता है कि किसी को भी पता नहीं, तो यह तुम्हारी भूल है।
आज यह आम बात हो गई है कि हर आदमी दूसरे की बुराई बड़ी आसानी से देख लेता है। कबीर तो कह ही गये हैं-
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
आज संसार में हर कोई खुद को न देखकर, दूसरों को ही क्यों आंकता है? इस प्रश्न का उत्तर एक बोधकथा में इस प्रकार दिया गया है- एक गुरुकुल के आचार्य अपने शिष्य की सेवा से बहुत प्रसन्न हुए। विद्या पूरी होने के बाद जब शिष्य विदा होने लगा तो गुरु ने उसे आशीर्वाद के रूप में एक दर्पण दिया। उस दिव्य दर्पण में किसी भी व्यक्ति के मन के भावों को दर्शाने की बड़ी अनूठी क्षमता थी। शिष्य ने सोचा कि चलने से पहले क्यों न दर्पण की क्षमता की जांच ही कर ली जाए?
परीक्षा लेने की जल्दबाजी में उसने गुरु द्वारा दिए दर्पण का मुंह सबसे पहले गुरुजी के सामने कर दिया। शिष्य को झटका लगा। दर्पण दर्शा रहा था कि गुरुजी के हृदय में मोह, अहंकार, क्रोध आदि दुर्गुण स्पष्ट दिख रहे हैं। अरे, मेरे आदर्श, मेरे गुरुजी, इतने अवगुणों से भरे हुए हैं? यह सोचकर शिष्य बहुत दुखी हुआ। दुखी मन से वह दर्पण लेकर गुरुकुल से रवाना हुआ तो रास्ते भर मन में एक ही बात चलती रही कि जिन गुरुजी को मैं एक आदर्श पुरुष समझता था, उन्हें दर्पण ने तो कुछ और ही बता दिया है।