किसान हितैषी निर्णयों में दिखाई देती विसंगतियां
शशांक शर्मा
केन्द्र सरकार ने किसानों के हित में कुछ निर्णय लिए हैं, इस संबंध में कुछ नियम और क़ानून में संशोधन करने के लिए अध्यादेश जारी किए जा रहे हैं। भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है क्योंकि सबसे ज्यादा आबादी कृषि कार्य से जुड़ी हुई है, हालांकि अनुपात में निरंतर कमी आ रही है। भारतीय कृषि से ही देश की गऱीबी है क्योंकि प्रकृति पर आधारित कृषि अगर अच्छी फसल दे भी दे तो किसानों की समस्या यहीं खत्म नहीं होती। उत्पादन के बाद उचित मुल्य पर फसल की बिक्री हो जाए तो किसान अपने को धन्य मान लेता है। अब केन्द्र सरकार को लगता है कि किसान के उपज का सही मुल्य दिलाने के लिए उसे भारत में कहीं भी बेचने की स्वतंत्रता मिल जाए या वह अपनी उपज किसी को भी बेचने के लिए स्वतंत्र हो जाए तो इससे किसानों की समस्या खत्म हो जाएगी, मगर इसमें भी संदेह है। बीते दिनों केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने कृषि क्षेत्र में तीन महत्वपूर्ण संशोधन किए हैं। पहला, आवश्यक वस्तु अधिनियम में अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज, आलू जैसी वस्तुओं को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटा दिया है। इसका मतलब है कि इन कृषि उत्पादों का भंडारण की सीमा खत्म कर दी गई है, इससे अनाजों व अन्य वस्तुओं की जमाख़ोरी बढ़ेगी हालांकि कतिपय परिस्थितियों में इल कानून का अतिक्रमण सरकार कर सकती है। दूसरा बदलाव कृषि उपज वाणिज्य एवं बाज़ार (संवर्धन एवं सुविधा) अध्यादेश के जरिए किसानों को अपने उत्पाद देश में किसी भी राज्य या स्थान पर बेचने की छूट मिल गई है, इसे ‘एक देश-एक कृषि बाजार’ कहा जा रहा है। इस व्यवस्था के तहत किसी भी खऱीदी बिक्री में कोई शुल्क नहीं लिया जाएगा। और तीसरा परिवर्तन किसानों को किसी भी प्रोसेसर्स, थोक विक्रेताओं, कारोबारियों या निर्यातक के साथ जुडक़र खेती करने की सुविधा एक क़ानून बनाकर दी जा रही है। यह पहले से चल रहे कॉन्ट्रेक्ट कृषि को कानूनी रूप देने का प्रयास है।स्वतंत्रता के बाद से ही खेती को उन्नत करने के प्रयास शुरू हो गए थे, किसानों को नई तकनीक से जोडक़र खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी की गई। 1950 में जहां देश में केवल 50 मिलियन (5 करोड़) टन खाद्यान्न का उत्पादन होता था आज वह बढक़र 300 मिलियन( 30 करोड़) टन के करीब पहुंच गया है। लेकिन उत्पादन बढऩे से किसानों की बदहाली दूर नहीं हुई। किसानों को ऋण, बाज़ार सहित हर तरह की सुविधा दी गई लेकिन कृषि क्षेत्र की माली हालत ठीक नहीं है। 2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बनी एनडीए सरकार ने वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की दिशा में काम कर रही है। किसानों की उपज का उचित मुल्य देने ऑनलाईन खरीदी-बिक्री के लिए ई-नाम पोर्टल बनाया गया है। इसके बावजूद भी खास प्रगति कृषि क्षेत्र में दिखाई नहीं दे रही है। क्या केन्द्र सरकार के हालिया निर्णयों से कुछ सुधार होगा? लगता तो नहीं है क्योंकि जो परिवर्तन किए गए हैं, उससे छोटे किसानों को फायदा होगा इसमें संदेह है। भारत में कुल किसानों में से लगभग 80त्न सीमांत और लघु कृषक हैं जिनके पास औसतन 1 से 3 एकड़ खेतिहर ज़मीन है। दूसरी समस्या सिंचित खेतों की है, भारत में कुल कृषि योग्य ज़मीन में से केवल 40त्न खेतों तक सिंचाई की सुविधा है, इनमें भी आधे क्षेत्रों में सिंचाई की पर्याप्त सुविधा है।
उपरोक्त दोनों देश में कृषि के पिछड़ेपन के प्रमुख कारण है। अब इस परिप्रेक्ष्य में केन्द्र के निर्णयों का विश्लेषण करें तो किसान भारत में किसी भी राज्य में अपनी उपज कैसे बेचेगा? इसके लिए भारत के सभी राज्यों के कृषि व्यापारियों या सहकारी केन्द्रों से उसका संपर्क होना जरूरी है। इसके लिए स्मार्ट फोन, इंटरनेट की सुविधा और इन तकनीकों को उपयोग करने योग्य ज्ञान जरूरी है। अगर सब हो गया तो लघु-सीमांत किसानों की खेत से इतना उत्पादन नहीं होगा कि बेचने वाला या खरीदने वाला परिवहन व्यय का भार उठा सके। बड़े व्यापारी भी छोटे किसानों से झिक-झिक करने के बजाय ज्यादा मात्रा में उत्पादन करने वाले बड़े किसानों से खरीदारी करेंगे। इसका समाधान यही है कि एक गांव क्षेत्र के किसान कार्टेल या समूह बनाकर किसी एक खरीदार को अपना उपज बेचें। ‘एक देश-एक कृषि बाज़ार’ व्यवस्था में एक और विसंगति है, अब कोई राज्य न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक मूल्य अपने राज्य के किसानों को नहीं दे सकेंगे। अगर कोई एक राज्य अगर निश्चित मूल्य से ज्यादा किसानों की उपज को देता है तो दूसरे राज्यों के किसान भी अपनी फसल उस अधिक मूल्य देने वाले राज्य में बेचना चाहेंगे। अभी कानून के अनुसार दूसरे राज्य की फसल को आने में रोक लग सकती है, अब केन्द्र के इस संशोधन के बाद रोक लगाना संभव नहीं होगा। मतलब अब राज्य सरकारें अधिक मूल्य या बोनस देने से बचेंगी। इसी तरह कॉन्ट्रैक्ट खेती के लिए भी जो अध्यादेश जारी किया गया है वह देश के सभी किसानों के लिए लाभप्रद नहीं है। ऐसे क्षेत्र जहां सिंचाई की सुविधा है और सडक़ अधोसंरचना अच्छी है, उन क्षेत्र के। किसानों को फायदा मिलेगा, लेकिन ऐसे क्षेत्रों में कृषि तो वैसे भी उन्नत है। जहां सिंचाई की व्यवस्था नहीं और सुदूर क्षेत्रों में जो किसान हैं उनको उद्योग-व्यापार से जुडक़र कैसे लाभ हो, इस पर विचार संभव है किया गया हो।
एक बात और है कि उपरोक्त निर्णय क्षेत्रीय विकास को प्रभावित करेंगी। पहला जब भंडारण की सीमा खत्म हो गई है तो कृषि आधारित उद्योगों को के लिए कच्चे माल का भंडारण हो सकेगा, लेकिन कहीं भी बेचने के फैसले से कृषि उत्पादन वाले क्षेत्रों में उद्योग कम लगेंगे। दूसरा कोल्ड स्टोरेज भी अब बड़े शहरों के आसपास जहां बाज़ार और उद्योग होंगे, वहां पर लगाए जाएंगे। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में उद्योग को बढ़ावा देने की योजना प्रभावित होगी। एक गंभीर विषय यह है कि छोटे और मझोले किसानों की अपेक्षा बड़े किसानों को अधिक फायदा हुआ तो कॉर्पोरेट घराने भी कृषि की ओर रूख कर सकते है। ऐसा हुआ तो छोटे किसानों की ज़मीनों को अच्छा दाम देकर खऱीदने लगेंगे, कुल मिलाकर छोटे किसान समाप्त होने लगेंगे। ऐसा हुआ तो कृषि की समस्या ही समाप्त हो जाएगी। संभव है कि किसानों के हित में निर्णय लेते समय जो विसंगति दिख रही है उस पर विचार अवश्य किया गया होगा और नहीं किया गया है तो करना जरूरी है। हमेशा कमजोरों को ताकत देने वाली नीतियों और कार्यक्रमों ने ताकतवर को और ताकत दी है, यही वजह है कमजोर वर्ग के लिए नीति और कार्यक्रम बनाने का सिलसिला जारी है।