कृषि की आर्थिकी में लौटने में ही समाधान

सुरेश सेठ
ऐसा तो कभी सोचा भी न था कि आदमी को न केवल आदमी को छूने से डर लगने लगे, बल्कि अपना परिवेश, अपने आसपास की हवा भी अजनबी लगे। प्रकृति के नयनाभिराम दृश्य किसी अबूझ कुहरे में गुम हो जायें। हरी घास पर क्षण भर भी निकल न पायें कि न जाने किस कुहासे से घातक वायरस का संक्रमण आपको आलिंगन में ले ले।
पूरी दुनिया, यूरोप, अमेरिका, ब्राजील, रूस या अपना भारत। पड़ोसी चीन जहां से कभी मृत्यु का ताण्डव शुरू होने का अंदेशा लगता है, कभी प्राकृतिक कोप के कारण बिछती हुई लाशें?देखकर उसकी बेचारगी पर तरस आता है।
कभी अपने ज्ञान-विज्ञान और अपने शोध का गौरव याद आया जो अपनी गरिमा से अंतरिक्ष को चमका रहा था, कभी अपनी समझ की उड़ान के साथ इस ब्रह्माण्ड के ग्रहों, उपग्रहों में?इनसानी बस्तियां बसा देने की बात कहता था।
लेकिन पिछले पांच-छह महीने में?इनसानी समझ, इसकी चाल-ढाल, उसके जीने का ढंग, उसके आपसी व्यवहार का चेहरा कितना बदल गया? एक अनजान वायरस कोरोना का भय पूरी दुनिया की सांसों, सोच और समझ पर हावी हो गया। मौत से बड़ा मृत्यु भय हो गया। बीमारी से बड़ा उसके संक्रमण का भय हो गया।
यह कैसा इक्कीसवीं सदी का बीसवां बरस आया कि जीने का ढंग ही सबके लिए अजनबी हो गया। सड़कों पर चलना गुनाह हो गया। बागों की हरीतिमा से लेकर पहाड़ों की रूनकझुनक को गले लगाना एक अपराध हो गया।
हां, पूरी दुनिया के हर देश में लोग कोरोना महामारी का प्रकोप झेल रहे हैं। तीन करोड़ से अधिक लोग इसके स्पर्श से बेदम हो गये हैं। एक समय में लाखों लोग बिस्तर पकड़ टूटती सांसों के साथ मृत्यु भय झेल रहे हैं। दस लाख लोग तो इस रोग की रहस्यमय मृत्यु की भेंट चढ़ गये। भारत में भी देखते ही देखते 60 लाख से अधिक लोग इसकी चपेट में आ गये। देश में दस लाख से अधिक लोग बिस्तर पर पड़े हैं और 94 हजार से अधिक लोगों को काल ने अपना ग्रास बना लिया।
यह महामारी आपको अपनी चपेट में ले लेती है। अच्छा भला आदमी सांस टूटने से चल क्यों बसता है, ऐसे अबूझ प्रश्नों का उत्तर किसी के पास क्यों नहीं है? शुरू से सुनते आये थे, बीमार पड़े हो तो उपचार करो, दवा ले लो। परन्तु यह कैसी बीमारी, जिसकी कोई दवा ही नहीं? बस एक ही उपचार है, सामाजिक दूरी रखें। एक-दूसरे के साये से, स्पर्श से बचो। घरों में बंद हो जाओ। बिना वजह सार्वजनिक स्थलों पर घूमो नहीं। सामुदायिक जीवन को नकारो, क्योंकि सामुदायिक संक्रमण का खतरा है।
देखते ही देखते पिछले छह महीनों में आदमी की सोच पर इस कोरोना महामारी के अनियंत्रित संक्रमण ने ऐसा कुठाराघात किया कि आज तक मानव जाति द्वारा दिगदिगन्तो को विजित कर लेने, अंतरिक्ष से लेकर ग्रहों-उपग्रहों को विजित कर लेने की सब अहम्मन्यता नकारी गयी।
दुनिया भर के सौ से अधिक चिकित्सा संस्थान और उसके शोध विज्ञानी इसकी दवा या सटीक टीके की खोज में लगे हैं, सटीक औषधि प्राप्त करने की पहले, दूसरे और तीसरे चरण की जांच और प्रयोगों की भूलभुलैया में?उलझे हैं और भारत जैसे देश के प्रधानमंत्री को मानना पड़ा 'जब तक दवाई नहीं, तब तक ढिलाई नहीं।Ó
आदमी कोई बेजान उपकरण तो नहीं है कि उसे किसी कलबूत पर कस दो। अपने आपको किसी कैदघर में महसूस करो कि हम भौतिकता के जिस चुंधिया देने वाले मार्ग पर सरपट भागे जा रहे थे, वहां इतना बड़ा मार्ग निषेध आ गया कि अब किंकर्तव्यविमूढ़ होकर दिशाहीन हो जाओ।
लेकिन दिशायें स्पष्ट हैं। अभी तक एक बहिर्मुखी संसार में?हम एक-दूसरे को पछाडऩे में लगे थे। क्या समय नहीं आ गया कि हम?इस बहिर्मुखी समाज के नुमायश भरे रास्तों को त्याग कर तनिक अन्तर्मुखी हो जाने की चेष्टा करें? यह सत्य है कि आदमी की बौद्धिकता, ज्ञान, और शोध ने पिछली सदियों में हमारे लिए ऐसे अकल्पनीय संसार खोले हैं, जिनकी हम मध्य युग में कल्पना भी नहीं कर सकते थे। लेकिन आज कोरोना महामारी के इस विकट संज्ञान ने क्या हमें यह नहीं समझा दिया कि इस बृहत ब्रह्माण्ड के अबूझ विकट रहस्यों के समय हमारी औकात और हमारी उपलब्धियों के माउंट एवरेस्ट कुछ भी नहीं?
थोड़ी-सी अपने देश की आर्थिक प्रगति की बात कर लें। पौन सदी की इस आर्थिक आजादी में हम योजना आयोग के पथनिर्देश पर योजनाबद्ध आर्थिक विकास के बारह पंचवर्षीय मील पत्थरों को छूने का प्रयास करते रहे। लेकिन आज पिछले छह बरसों के मोदी काल में हमने योजना आयोग को सफेद हाथी कह कर नकारा, और आज नीति आयोग के साये तले हम निजी क्षेत्र के साथ सार्वजनिक क्षेत्र को उसकी जगह पर रख एक नये समन्वयवादी समाज की कल्पना कर रहे हैं।
इस कोरोना काल की मानवीय विभीषिका को लीजिये। जिसे आज तक सही मानकर चलते रहे, वही गलत होता हुआ नजर आता है। लेकिन आदमी की जिजीविषा कभी पराजय स्वीकार नहीं करती। कभी नेहरू युग की दूसरी पंचवर्षीय योजना से भारत में औद्योगिक क्रांति का नारा दिया गया था। तब घरेलू और विदेशी निवेश की सहायता से बड़े-बड़े औद्योगिक संस्थान उभरे। कृषक भारत में कृषि जीने का ढंग नहीं रही। वह हानि-लाभ का सौदा हो गयी। तब शुरू हुआ भारत में हजारों गांवों से किसी बेहतर जिंदगी की तलाश में करोड़ों युवक महानगरों के उभरते हुए औद्योगिक संस्थानों के लिए निकल पड़े और वहां निराशा हाथ लगी तो कबूतरबाजों के पंखों पर बैठकर परदेस की ओर बहिर्गमन।
लेकिन फिर आयी कोरोना महामारी। लॉकडाउन के चार चरण, जिन्हें आज अनलॉक के चार चरण भी संभाल नहीं पा रहे। कभी देश के गांव घरों से करोड़ों श्रमिक इन महानगरों और विदेशों के विकल्प की तलाश में चले आये थे। आर्थिक निष्क्रियता के इस नये सत्य ने उन्हें?पंगु बना दिया। विदेशों और महानगरों में अपनी जड़ें तलाशते हुए ये लोग उखड़ गये और वापस अपनी ग्रामीण सभ्यता की ओर लौटे, जिसके कारण भारत कभी 'कृषक भारतÓ कहलाता था।
इधर कोरोना काल के आंकड़े यह बताते हैं कि इस आर्थिक दुरावस्था के दिनों में जहां सकल घरेलू उत्पादन 23.9 प्रतिशत कम हो गया। यह कृषि उत्पादन का घनात्मक विकास ही है, जिसने भारत की उम्मीदों को जिन्दा रखा।
अब इस भयावह संत्रास में आगे का रास्ता स्पष्ट है। बहिर्मुखी चकाचौंध से अन्तर्मुखी होते हुए अपने अन्तस में देवालयों का निर्माण करते हुए वापस अपने कृषक भारत के पुनर्जीवन की ओर लौटें क्योंकि इसी रास्ते पर समाधान की कोई कंदील जलती नजर आती है।