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कोरोना की राजनीति से बढ़ता संक्रमण

शशांक शर्मा

कल तक छत्तीसगढ़ में करोनो विषाणु के संक्रमण दर में नियंत्रण को लेकर देशभर से वाहवाही मिल रही थी, अब करोनो ब्लॉस्ट के कारण प्रदेश की स्थिति चिंताजनक बनती जा रही है। यह ब्लॉस्ट आयातित है, जब से अप्रवासी मजदूरों के जत्थों के आने का सिलसिला शुरू हुआ तब से। केन्द्र सरकार ने जब 24 मार्च से पूर्ण लॉकडॉउन का निर्णय लिया था, उसके पूरा होने के बाद दूसरे चरण से ही राजनीति शुरू हो गई थी। प्रवासी मजदूरों के बीच अफवाह फैलाना, उन्हें दिग्भ्रमित करना, और भडक़ाने का कार्य कुछ अराजकतावादी समूहों ने किया। लोकतंत्र में सरकारों पर दबाव बनाना आसान है, इसलिए मजदूरों के लिए अनुचित व देश के लिए हानिकारक प्रचार कर प्रवासी मजदूरों को अपने गृहराज्य जाने के लिए बाध्य किया। तुच्छ राजनीति ने इस संकट काल में भी व्यवस्था में खामियां ही बताई और महामारी को भी वोट साधने का जरिया बना दिया।

भारत में करोना संक्रमण फरवरी से शुरू हुआ और मार्च के पहले सप्ताह तक सीमित मामले आए। सरकारों ने जब तक इस समस्या को समझा, एकाएक विदेशों से भारत आने वाले भारतीयों के कारण करोना मरीजों की संख्या बढऩे लगी। केन्द्र सरकार ने 24 मार्च से पूर्ण लॉकडॉउन की घोषणा कर दी। 14 अप्रैल तक लॉकडॉउन का कड़ाई से पालन करवाया गया, कुछ दृश्य पुलिस द्वारा लॉकडॉउन के उल्लंघन करने वालों के आने शुरू हुए। पुलिस की कार्रवाई के खिलाफ अराजकतावादियों ने माहौल बनाना शुरू कर दिया। फिर पुलिस अमले ने संकट के समय जिस प्रकार जनता की मदद की, उससे पुलिसकर्मियों की वाहवाही होने लगी। अराजकतावादी हताश हो गए। फिर उनकी दृष्टि प्रवासी मजदूरों पर पड़ी, वैसे भी उनकी क्रांति का आधार ही मजदूर-किसान हैं। भारत में सरकारी आंकड़े के मुताबिक लगभग 14 करोड़ लोग काम करने स्थायी या अस्थायी तौर पर एक राज्य से दूसरे राज्य काम करने जाते हैं। इनमें से दो करोड़ ऐसे हैं जो कुछ महिनों या एक- साल से ही मजदूरी करने गए थे, बड़ी संख्या उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडीसा जैसे राज्यों के मजदूरों की हैं। जैसे ही लॉकडॉउन हुआ इन प्रवासी मजदूरों की रोजगारी चली गई, खाने पीने और रहने की समस्या खड़ी हो गई। हालात के मारे इन लोगों पर राजनीति करने वालों की गिद्ध दृष्टि पड़ गई, इसके बाद क्या हुआ, यह हम सबके सामने है।

अब जब कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं, यह आरोप लगाए जा रहे कि भारत में लॉकडॉउन असफल रहा। यह भी कहा जा रहा कि लॉकडॉउन तो अब होना चाहिए क्योंकि मामले तो अब बढ़ रहे हैं। यह समझने की जरूरत है कि मार्च के आखिरी सप्ताह में लॉकडॉउन क्यों जरूरी था? जब संक्रमण के मरीज़ बढऩे लगे तब भारत में इस महामारी को लेकर न तो जनता में जागरूकता थी और न ही इस बीमारी से निपटने के लिए सरकार के पास साधन-संसाधन थे। याद करें तो सेनेटाईजर और मास्क की कमी हो गई थी, दोगुने से पांच गुने कीमत पर बेची जा रही थी। लॉकडॉउन ने देश के लोगों को इस महामारी की गंभीरता को समझने का मौका दिया, प्रधानमंत्री भी बार-बार राष्ट्र के नाम संदेश देने के बहाने जनता को जागरूक करते रहे। दूसरी ओर संक्रमित मरीजों को उपचार, क्वारंटाईन केन्द्रों की व्यवस्था की गई। करोना की टेस्टिंग की व्यवस्था बढ़ाई गई, राज्यों से लेकर जिला स्तर पर कई अस्पतालों को तैयार किया गया। इस दौरान विश्व भर में इस वायरस की प्रवृत्ति और प्रकृति को समझने का अवसर मिला। दो चरणों के लॉकडॉउन ने व्यवस्था बनाने में मदद की, इस दौरान पुलिस और चिकित्सा विभाग ने बड़ी मेहनत की, इनको धन्यवाद देने के लिए जनता के द्वारा थाली और ताली बजाकर कृतज्ञता दी। इसका भी कुछ विघ्नसंतोषी समूहों ने मज़ाक़ उड़ाया। धीरे-धीरे लॉकडॉउन में शिथिलता दी गई लेकिन सरकार की ओर से बार बार यही कहा गया कि दो व्यक्ति जहां पर है, वहीं रहे। घर से बाहर न निकलें और शारीरिक दूरी बनाकर रखें।

केन्द्र सरकार के दिशानिर्देश स्पष्ट थे, जो जहां हैं वहीं रहें। बस फिर क्या था, अराजकता पैदा करने को मौका मिल गया। सोशल मीडिया पर ऐसी तस्वीरें और टिप्पणियों को पोस्ट किया गया जिससे सरकारों पर मजदूर विरोधी होने के आरोप मढ़े जा सके। इस बीच कुछ सडक़ दुर्घटनाओं में मजदूरों की दु:खद मृत्यु गई, और औरंगाबाद से पैदल चल पड़े की रेल हादसे के बाद सरकारें भी दबाव में आ गईं। संकट के समय जब पूरा देश को एक होकर मुकाबला करना चाहिए था, वहां राजनीतिक लाभ लेने की मंशा ने स्थिति को बिगाड़ दिया है। उत्तरप्रदेश की योगी सरकार ने सबसे पहले अपने प्रदेश के कोटा में फंसे छात्रों को वापस लाने के लिए बस की सुविधा दी, इसके बाद मजदूरों को वापस लाने की मांग उठी। दिल्ली, महाराष्ट्र जैसे सक्षम राज्यों ने अपने राज्यों से अप्रवासी मजदूरों को सीमा पर लाकर छोडऩा शुरू कर दिया। स्थिति को देखते हुए रेल मंत्रालय ने 9 मई से मजदूरों को उनके घर पहुंचाने के लिए विशेष रेलगाड़ी चलाने का निर्णय लिया। इस पर भी घटिया स्तर की राजनीति हुई। हर राज्य अपने प्रदेश के मजदूरों को वापस लाने गाडिय़ों की व्यवस्था की। बिहार के मुख्यमंत्री का रवैया सबसे सही था, वे कहते रहे कि लॉकडॉउन में किसी को भी वे बिहार नहीं लाना चाहते, यही नियम भी था। लेकिन राजनीति के चलते नीतीश कुमार को भी झुकना पड़ा। अब जब मजदूरों का आना जाना बड़ा तो कोरोना संक्रमण की संख्या भी बहुत तेजी से बढ़ी है।

भारत में आजादी के बाद आर्थिक विकास में क्षेत्रीय विषमता रही है, कुछ ही शहरों तक औद्योगिक और वाणिज्यिक विकास सिमट कर रह गया है। शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाएं भी इन शहरों में बहुत अच्छी रही इसलिए इन शहरों की आबादी भी लगातार बढती गई। इन्हीं व्यापारिक नगरों में रोजगार पाने पूरे देश शिक्षित-अशिक्षित लोग पहुंच गए। जब मुसीबत आई तो इन शहरों के उद्योगपतियों और शासन-प्रशासन ने ने मजदूरों की सहायता नहीं की, इसलिए सर्वसुविधा वाले शहरों से अपने गांव व शहर पहुंचे जहां स्वास्थ्य की कोई खास सुविधा नहीं है। अपने साथ संक्रमण भी ले आए और इससे छोटे शहर, कस्बे और गाँव प्रभावित हो रहे हैं। छत्तीसगढ़ की बात करें तो जब से मजदूर दूसरे राज्यों से यहां आना शुरू किया तब से ही संक्रमित मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही है। सरकार की सारी तैयारियां अधूरी पडऩे लगी है, अस्पतालों मे अब बिस्तर नहीं है। टेस्ट की सुविधा अब अपर्याप्त लग रही है, चिकित्सा कर्मी भी संक्रमित हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में अनलॉक का पहला चरण शुरू हो चुका है, क्या प्रदेश सरकार किसी भी विपरीत परिस्थिति से निपटने के लिए तैयार है?

राजनीति ने संकट काल में जो अराजक स्थिति पैदा कर दी है, उसमें सबसे संतोष की बात यह है कि संक्रमितों की संख्या विश्व में सबसे अधिक वाले राष्ट्रों में शामिल होने के बावजूद मृत्यु दर बहुत कम है। संक्रमित होने वालों की संख्या व उपचार से स्वस्थ होने वालों की संख्या का अनुपात अच्छा है। लेकिन माना जा रहा है कि कोरोना वायरस परिस्थिति अनुसार अपनी प्रकृति बदल रहा है, अगर यह वायरस वर्षाकाल में घातक हो गया तो बहुत विचित्र स्थिति हो जाएगी। इससे राजनीति तो खुश हो सकती है लेकिन समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र के दु:ख लम्बे समय तक देश को भोगना पड़ सकता है।


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