कोरोना और राजनीति
कोरोना से लड़ाई के बीच ही सत्तारूढ़ दल बीजेपी ने देश के अलग-अलग हिस्सों में वर्चुअल रैलियां करनी शुरू कर दी है। ठोस रूप से कहें तो शीर्ष पार्टी नेताओं का केंद्रीय पार्टी कार्यालय से किसी खास राज्य के गांव-मोहल्लों में मौजूद अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों को पोलिंग बूथ के स्तर पर लाइव संबोधित करना। पिछले तीन दिनों में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने बिहार, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में ऐसे आयोजन संपन्न किए हैं।
बीजेपी कह रही है कि ये चुनावी रैलियां नहीं हैं, लेकिन जिन तीन राज्यों में ये हुईं उनमें से दो में जल्द ही विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। बिहार में इसी साल और पश्चिम बंगाल में अगले साल। ऐसे में इस कवायद को चुनावों से पूरी तरह काटकर तो नहीं देखा जा सकता। विरोधी दलों की प्रतिक्रिया भी इसकी पुष्टि करती है।
बिहार में आरजेडी समर्थकों ने थालियां बजाते हुए वहां 72 हजार एलईडी टीवी सेट्स के साथ आयोजित अमित शाह की वर्चुअल रैली का सांकेतिक विरोध किया। समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने इसे डेढ़ सौ करोड़ के खर्चे वाली रैली बताते हुए कहा कि बीजेपी विपक्ष का मनोबल तोडऩे के लिए ऐसी महंगी रैलियां आयोजित करवा रही है। डेढ़ सौ करोड़ के आरोप पर तो कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन ये रैलियां खर्चीली जरूर हैं।
प्रति पोलिंग बूथ एक एलईडी टीवी का इंतजाम करना और तकनीकी सुविधाओं का इस्तेमाल करते हुए प्रदेश भर के कार्यकर्ताओं तक अपनी बात पहुंचाना देश की कितनी पार्टियों के लिए संभव है, कहा नहीं जा सकता। हालांकि एक सवाल यह भी है कि बीजेपी के अलावा देश की कितनी पार्टियां निर्धारित तिथि पर किसी राज्य के हर बूथ पर कोई राजनीतिक कार्यक्रम करने में सक्षम हैं। निश्चित रूप से अमित शाह की देखरेख में बीजेपी ने अपनी चुनावी मशीनरी और संगठनात्मक तंत्र को बहुत ज्यादा चुस्त बना लिया है, जिसका फायदा उसको अधिकतर चुनावों में मिल रहा है।
बावजूद इसके, हकीकत का दूसरा पहलू यह है कि कोरोना का यह दौर बाकी पार्टियों को उतना भी सक्रिय नहीं होने दे रहा, जितने की उनमें क्षमता है। व्यापक जनसंपर्क में जाना उनके कार्यकर्ताओं के लिए संभव नहीं है और वे ऐसा कुछ करें भी तो लोग उनसे बात करने को राजी नहीं होंगे। बीजेपी की ये रैलियां ‘चुनावी’ भले न हों, पर इनके जरिये उसने बता दिया है कि इस तरीके से वह काफी सारे मतदाताओं के पास पहुंच सकती है, जो बाकी दलों के लिए धन और संसाधन, दोनों ही दृष्टियों से लगभग असंभव है। जाहिर है, ऐसे में चुनाव हुए तो सभी के लिए समान अवसर, या ‘लेवल प्लेइंग फील्ड’ वाली बात हवा-हवाई बनकर रह जाएगी। संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र में न तो चुनाव टालने की वकालत की जा सकती है, न समान अवसर सुनिश्चित किए बगैर चुनाव कराने की। ऐसे में चुनाव आयोग की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है।