top of page

कारगर समाधान की पहल करे सरकार

लक्ष्मीकांता चावला

देश के आम आदमी के लिए यह चिंता का विषय है, पर निश्चित ही देश के राजनेताओं के लिए यह केवल भाषणबाजी, आरोप-प्रत्यारोप का एक और मुद्दा मिलना है। हर भारतीय के लिए यह चिंता का विषय है कि इस वर्ष वैश्विक स्तर पर भूख का जो सूचकांक आया है, उसमें भारत दुनिया के 117 देशों में नीचे गिरता हुआ 102वें स्थान पर आ गया है।

आयरिश एजेंसी कन्सर्न वर्ल्ड वाइड और जर्मन संगठन वेल्ट हंगर हिल्फे ने संयुक्त रूप से यह रिपोर्ट तैयार की है। उन्होंने भारत में फैली भुखमरी को चिंताजनक करार दिया है। आश्चर्य यह है कि पाकिस्तान भी इस सूची में 94वें स्थान पर है और हमारे पड़ोसी बांग्लादेश 88वें और नेपाल 73वें स्थान पर हैं। यह ठीक है कि भारत की बहुत-सी मुसीबतों का कारण यहां जनसंख्या का विस्फोट है, लेकिन जनसंख्या विस्फोट ही अगर एकमात्र कारण होता तो फिर चीन भारत से भी कहीं निचले स्तर पर पहुंच गया होता। प्रश्न यह है कि अगर सन् 2000 में इसी सूची में हमारा स्थान 113 देशों में 83वें स्थान पर था और 2014 में 55वें स्थान पर पहुंच गया तो अचानक सन् 2018 और 19 में भारत में भुखमरी का इतना भयानक प्रकोप कैसे दिखाई देेने लग गया।

सरकारें चाहे जो भी कहें, यह सर्वविदित है कि भारत की कुल संपदा एवं आर्थिक साधनों के 90 प्रतिशत पर केवल 10 प्रतिशत लोगों का अधिकार है और 90 प्रतिशत लोग भारत की 10 प्रतिशत संपदा के सहारे ही जी रहे हैं। हमारे देश के संविधान में भी समाजवादी व्यवस्था को ही स्वीकार किया गया है। यह कहां का समाजवाद है जहां 30 प्रतिशत लोग भूख और कुपोषण का शिकार हों। भारत में एक वर्ग ऐसा है जो भोजन से पहले भूख लगाने के लिए कई प्रकार के सूप, सब्जियों एवं फलों के रस पीता है, पर करोड़ों लोग ऐसे हैं जो भूख न लगे, इसी भुलेखे में अपने को डालकर रखते हैं।

सवाल यह भी है कि एक तरफ वे लोग हैं जिन्हें वेतन करोड़ों में मिलता है, लाखों रुपया प्रतिमास वेतन पाने वाले तो असंख्य अधिकारी और कर्मचारी हैं। सांसदों और विधायकों के वेतन भत्तों और पेंशन का विवरण सुनकर तो वह आदमी सदमे में ही चला जाएगा जो केवल पांच सात हजार रुपये वेतन पाकर सिसक-सिसक कर जीने को मजबूर हैं। सरकारें भी जानती हैं कि पिछले दस वर्षों में महंगाई बढ़ी है। ऐसी स्थिति में उन लोगों की क्या हालत होगी जो आज से दस वर्ष पूर्व जिस वेतन में गुजारा करते थे, उन्हें आज भी वही मिल रहा है। सच्चाई यह है कि खाद्य वस्तुओं की कीमतें, मकान का किराया, बिजली का शुल्क तथा अन्य सभी वस्तुओं की कीमतें महंगाई की भेंट चढ़ चुकी हैं, पर बेचारा आम आदमी, ठेका कर्मचारी, प्राइवेट दुकानों पर नौकरी करने वाले, रेहड़ी-छाबड़ी लगाकर गुजारा करने वाले उसी वेतन को बड़ी कृपणता के साथ खींच-खींच कर गुजारा करते हैं। भुखमरी का आंकड़ा आंकने के लिए यह भी देखा गया है कि कितने लोग कुपोषित हैं।

इसी एजेंसी ने यह जानकारी भी दी है कि भारत के नवजात बच्चों में से 2008 से 2012 की अवधि में छोटे कद और कम वजनी बच्चों की संख्या लगभग 17 प्रतिशत थी जो 2014 से 18 के बीच 9 फीसदी हो गई। वहां भारत में भुखमरी के आंकड़े बढ़ जाना देश के लिए खतरे की घंटी है। भुखमरी के आंकड़े से चिंतित सुप्रीमकोर्ट ने कहा है कि भूख की समस्या से निपटने के लिए देश में सामुदायिक भोजनालय बनाने ही चाहिए। जस्टिस एनवी रमना की अध्यक्षता वाली पीठ ने केंद्र और सभी राज्यों को नोटिस जारी किया तथा साझी रसोई बनाने के प्रस्ताव पर उनसे जवाब मांगा। कुछ सामाजिक कार्यकर्ता