कुदरत की तल्खी से उपजा संकट
ज्ञाानेन्द्र रावत
आज के दौर में सुनामी एक ऐसा शब्द है, जिसके बारे में अब ऐसा लगता है कि जैसे यह हमारी जिंदगी में बरसों से आता रहा है। असलियत यह है कि मनुष्य के पास प्रकृति के अलग-अलग अनुभव हैं। वह सीखता है, बढ़ता है, इस बीच वह अनगिनत चुनौतियां स्वीकार करता है और फिर वह अपनी जिजीविषा से उठ खड़ा होता है। कुदरत के साथ रिश्तों पर ऐसे वक्त में और गहरे से बात करना बेहद जरूरी हो गया है।
मौजूदा समय प्रकृति और मानव के विलगाव का समय है। प्रकृति और मनुष्य के बीच, विज्ञान और मनुष्य के बीच, हरेक दौर में इस तरह के अजूबे घटित होते रहे हैं। प्राकृतिक आपदाओं रूपी यह अजूबे कोई नई बात नहीं है। विडम्बना देखिये कि जब हम अंडमान निकोबार की जनजातियों के विलुप्त होने की आशंकाएं व्यक्त कर रहे थे, उस समय वह आधुनिक सरंजाम से दूर रहकर भी प्रकृति के इतने करीब थे कि इस जलजले की आहट सबसे पहले उन्होंने ही सुनी। वे बच गए क्योंकि प्रकृति की आहट को सबसे पहले वह सुन सके और इसका सबसे बड़ा और अहम कारण यह था कि वे कोलाहल नहीं चाहते।
इसमें दो राय नहीं कि सुनामी ने हमें मानवता, अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार और विज्ञान के परीक्षण का अवसर प्रदान किया है। यह विमर्श का विषय है। यदि हम इतिहास पर दृष्टि डालें तो हमारे यहां प्रलय का जिक्र पुराणों में मिलता है।
आज जबकि वैज्ञानिकों ने बिल्ली और भेड़ की क्लोनिंग कर ली है व जीव के मर जाने पर उसी शक्ल, रंग और स्वभाव का व्यक्ति पैदा कर सकते हैं, तो क्या इनसान मृत्यु पर काबू पा सकेगा और क्या इस तरह की आपदाओं को रोका जा सकता है। लगभग दो दशक से पूर्व प्रोफेसर बिल मैक्वायर ने बहुचर्चित चेतावनियों को आधार बनाकर ऐसी महा सुनामी लहरों की आशंका व्यक्त की थी। उनका मानना है कि आज के समय में जिस सुनामी की चर्चा सबसे अधिक है, वह अटलांटिक या अंधमहासागर के कैनोरी क्षेत्र के पालमा ज्वालामुखी टापू के टूटन से जनित हो सकती है। जरूरत इस बात की है कि जिस महाप्रलय की समुचित पूर्व चेतावनी के लिए जितने प्रयास जरूरी हैं, वह समय पर क्यों नहीं किए जा रहे हैं। पालमा टापू का अध्ययन बताता है कि संभावित सुनामी की विनाशक लहरें कितने समय में किस क्षेत्र में पहुंचेंगी, इसका पूर्व अनुमान लगाकर जीवन रक्षक चेतावनी दे सकते हैं। लेकिन हम इसे गंभीरता से नहीं लेते।
यह कटु सत्य है कि आधुनिक विज्ञान भी गृहीय परिघटनाओं को समझने में असमर्थ है, उस स्थिति में ऐसी विनाशकारी आपदाओं को कैसे टाला जा सकता है ऐसी घटनाएं तो भविष्य में भी होंगी। पर्यावरणीय खतरे बढ़ेंगे। फिर भूगर्भीय गतिविधियों पर हमारा नियंत्रण है नहीं। उनको रोकना असंभव है। ऐसी स्थिति में समय रहते उसे संभालने की कोशिश तो कर ही सकते हैं। आपदाओं के समय हमारा मौसम विभाग अपने अनुभव को क्यों भूल जाता है।
सुनामी की उग्रता ने इन तथ्यों को उजागर कर वैज्ञानिकों की प्रतिभा और सामर्थ्य को नौकरशाहों के चंगुल से छुड़ाने की जरूरत पर बल दिया है। हमारे यहां धन का अभाव नहीं है, यदि है तो वह सुशासन का अभाव। हमें सदैव यह याद रखना होगा कि कुदरती कहर की पूर्व चेतावनियां उतनी जानें नहीं बचातीं, जितनी कि कहर के बाद उससे जूझने की तैयारी बचाती है। असली परीक्षा आपदा आने के बाद राष्ट्रीय प्रतिक्रिया में होती है। हादसे के बाद भावात्मक प्रतिक्रिया होती है, जिससे पुनर्निर्माण और राहत के समन्वय में वितरण की समस्याएं जन्म लेती हैं। आपदा प्रभावित लोगों के यथाशीघ्र पुर्नवास की समस्या भी बेहद जटिल होती है। इसमें अर्थ और संसाधन की उपलब्धता की भूमिका अहम होती है।
दरअसल तटवर्ती विनियामक जोन की दिशा में की गई घोषणाएं और पर्यावरण संतुलित रखने के प्रावधानों को जमींदोज किये जाने का ही दुष्परिणाम सुनामी आपदा के रूप में हमारे सामने आया। आवश्यकता इस बात की है कि पर्यावरण से जुड़े कानूनों का कड़ाई से पालन किया जाये। जरूरत है आपदाओं से निपटने की दिशा में ठोस नीति निर्माण और आपदाओं के साथ जीने की आवश्यकताओं का ध्यान में रखकर नीति बनाने की।
अब समंदर पहले से ज्यादा खतरनाक होते जा रहे हैं। भविष्य में सुनामी का कहर इससे भी अधिक दूर तक के क्षेत्र में फैल सकता है। इसलिए आशा की जाती है कि हमारी सरकार सुनामी के प्रकोप से सबक लेकर सुरक्षा के प्रति आश्वस्त करेगी।