कुनबा बचाने की चुनौती से जूझते अखिलेश

विकास सक्सेना
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव नतीजे के बाद से सपा मुखिया अखिलेश यादव नित नए राजनैतिक संकट से घिरते जा रहे हैं। पार्टी की कमान संभालने के बाद हुए एक लोकसभा और दो विधानसभा चुनावों में पार्टी के शर्मनाक प्रदर्शन ने उनकी नेतृत्व क्षमता पर प्रश्नचिह्न लगा दिए हैं। अब सैफई परिवार से लेकर पार्टी संगठन तक में उनके खिलाफ विरोध के स्वर मुखर होने लगे हैं। लेकिन पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में असंतोष के कारण नेतृत्व के फैसलों में ही दिखाई देते हैं।
दरअसल समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव लडक़र विधायक बने चाचा शिवपाल सिंह यादव को ‘बाहरी’ मानते हुए पार्टी विधायकों की बैठक में न बुलाकर अखिलेश यादव ने अपनी मंशा जाहिर कर दी थी। इसी तरह समाजवादी पार्टी के कद्दावर मुस्लिम नेता मोहम्मद आजम खां कई साल से जेल की सलाखों के भीतर हैं लेकिन पार्टी ने इसके खिलाफ कभी आवाज बुलंद नहीं की। पार्टी के भीतर खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे तमाम कद्दावर नेता और उनके समर्थक अखिलेश यादव के नेतृत्व और उनकी नीतियों के खिलाफ बोलने लगे हैं। जिसके चलते भाजपा जैसे शक्तिशाली राजनैतिक विरोधी का सामना करने की रणनीति खोजने में जुटे अखिलेश यादव को अब कुनबा बचाने की चुनौती से भी जूझना पड़ रहा है।
समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव के कंधे से कंधा मिलाकर पार्टी को विकसित करने वाले शिवपाल यादव और आजम खान जैसे नेता अखिलेश के नेतृत्व में खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। विधानसभा चुनाव 2012 में समाजवादी पार्टी की शानदार जीत के बाद मुलायम सिंह ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अखिलेश यादव को बैठा दिया था। पिता की विरासत के तौर पर अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री की कुर्सी तो हासिल हो गई लेकिन पार्टी संगठन और सरकार पर वह अपना प्रभाव स्थापित नहीं कर सके। इसी के चलते उनकी सरकार साढ़े चार मुख्यमंत्रियों की सरकार कहलाती थी। इसमें चार मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव, शिवपाल यादव, प्रो. रामगोपाल यादव और आजम खान माने जाते थे जबकि खुद अखिलेश यादव की हैसियत आधे मुख्यमंत्री की समझी जाती थी। खुद को मजबूत साबित करने के लिए उन्होंने जनवरी 2017 में मुलायम सिंह यादव को हटाकर पार्टी के अध्यक्ष पद पर कब्जा कर लिया और चाचा शिवपाल यादव को पार्टी से बाहर कर दिया। इसके बाद शिवपाल यादव ने प्रगतिशील समाजवादी पार्टी बना ली।
सरकार और संगठन पर एकछत्र राज स्थापित करने के बाद अखिलेश यादव ने मुलायम सिंह यादव के समय महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अधिकांश नेताओं के पर कतर दिए। लगभग पूरे प्रदेश में नए सिरे से पार्टी संगठन तैयार किया गया। विधानसभा चुनाव 2017 में उन्होंने कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन किया। लेकिन अखिलेश और राहुल गांधी की जोड़ी के भरसक प्रयास के बावजूद समाजवादी पार्टी महज 47 सीटों पर सिमट कर रह गई। इसके बाद लोकसभा चुनाव 2019 में सारी राजनैतिक कटुता को भुलाकर उन्होंने बसपा सुप्रीमो मायावती से चुनावी गठबंधन किया। मतभेद खत्म होने का संदेश देने के लिए उन्होंने अपनी पत्नी डिम्पल यादव से मंच पर मायावती का चरण वंदन भी करवाया लेकिन राजनैतिक नजरिए से इतने बड़े गठबंधन का भी समाजवादी पार्टी को कोई लाभ नहीं मिला। लोकसभा चुनाव 2014 का प्रदर्शन दोहराते हुए एकबार फिर सपा सिर्फ पांच सीटों पर सिमट कर रह गई। खास बात यह रही कि इन चुनावों में उनकी पत्नी डिम्पल यादव, चचेरे भाई धर्मेंद्र यादव और उनके सबसे बड़े सलाहकार रामगोपाल यादव के पुत्र अक्षय यादव तक चुनाव हार गए।
विधानसभा चुनाव 2022 को लेकर अखिलेश यादव और उनकी पार्टी खासी उत्साहित थी। नागरिकता संशोधन कानून और कृषि कानूनों के विरोध में हुए कथित किसान आंदोलन ने भी उन्हें नई ऊर्जा दी। इस बार पिछली ‘गलतियों’ से सबक लेते हुए उन्होंने ऐलान किया कि वह