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कठघरे में योगी सरकार

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सोमवार को उत्तर प्रदेश सरकार को फटकार लगाते हुए पूछा कि नागरिकता संशोधन कानून विरोध के दौरान हुई हिंसा में मरने वाले लोगों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट परिजनों को क्यों नहीं दी गई। साथ ही मीडिया में छपी रिपोर्टों को संज्ञान में लेते हुए कोर्ट ने पूछा कि पुलिस द्वारा उत्पीडऩ के आरोपों में कितने अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की गई है। दरअसल, मुंबई के एक अधिवक्ता द्वारा इस बाबत कोर्ट को भेजी एक ईमेल पर स्वत: संज्ञान लेते हुए तथा कुल चौदह याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश गोविंद माथुर और न्यायमूर्ति सिद्धार्थ वर्मा वाली खंडपीठ ने राज्य सरकार से लखनऊ और राज्य के विभिन्न हिस्सों में सीएए के विरोध में हुए हिंसक प्रदर्शनों के दौरान की गई पुलिस कार्रवाई की विस्तृत रिपोर्ट मांगी थी। राज्य सरकार द्वारा दिये गये हलफनामे से अदालत संतुष्ट नजर नहीं आई। कोर्ट ने राज्य सरकार से विस्तृत ब्योरा मांगा है। कोर्ट ने जानना चाहा कि विरोध प्रदर्शन के दौरान कितने लोग मारे गये, कितने लोग घायल हुए। पुलिस के खिलाफ कितनी शिकायतें दर्ज की गईं। कितने अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की गई। घायलों का क्या उपचार कराया गया। यदि पुलिस कर्मियों के बड़ी संख्या में घायल होने की बात है तो उसकी मेडिकल रिपोर्ट अदालत को सौंपी जाये। कोर्ट में दायर याचिकाओं में मीडिया रिपोर्टों का हवाला देकर पुलिस उत्पीडऩ के आरोप लगाये गये थे, जिसे सरकार ने खारिज किया। कोर्ट का कहना था कि क्या इन रिपोर्टों की सत्यता की जांच सरकार द्वारा करायी गई है? साथ ही यह भी पूछा िक जब आंदोलन के दौरान धारा 144 लगायी गई तो उसकी प्रक्रिया क्या रही थी। यह भी पूछा कि यदि आंदोलनकारियों द्वारा उत्पीडऩ के आरोप लगाये जा रहे हैं तो पुलिस प्रशासन के अधिकारियों के खिलाफ कितने मामले दर्ज हुए हैं यदि दर्ज नहीं हुए तो क्यों?

दरअसल, अदालत ने 19 दिसंबर को भी पुलिस को फटकार लगायी थी और राज्य सरकार को जवाब देने को कहा था। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस मामले में वरिष्ठ अधिवक्ता एस.एफ.ए नकवी को न्यायमित्र बनाया है। इस मामले में दायर चौदह याचिकाओं में पीयूसीएल, पीएफआई आदि ने किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश अथवा एसआईटी के द्वारा मामले की जांच करवाने की मांग इलाहाबाद उच्च न्यायालय से की है। साथ?ही दोषी पुलिसकर्मियों के?खिलाफ मुकदमा दर्ज करने की भी मांग की गई है। मामले में केंद्र सरकार और राज्य सरकार की ओर से हलफनामे दायर किये गये, जिससे अदालत संतुष्ट नजर नहीं आई। राज्य सरकार का कहना था कि विरोध प्रदर्शन के दौरान हुई हिंसा में भारी संख्या में पुलिसकर्मी भी घायल हुए हैं। पुलिस पर फायरिंग की गई। प्रदर्शनकारियों ने तोडफ़ोड़ और आगजनी करके सरकारी और व्यक्तिगत संपत्ति को भारी नुकसान पहुंचाया है। व्यक्तिगत रूप से किसी ने पुलिस के खिलाफ शिकायत दर्ज नहीं कराई। दरअसल, कोर्ट ने पूछा था कि प्रदर्शनकारियों की तरफ से कितनी शिकायतें दर्ज कराई गईं और कितनी शिकायतों पर पुलिस ने एफआईआर दर्ज की है। अदालत ने आगामी 17 फरवरी तक समस्त ब्योरे के साथ राज्य सरकार को हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया है, जिसमें समूहों, संगठनों व व्यक्तिगत पुलिस?उत्पीडऩ की शिकायतों पर कार्रवाई का ब्योरा भी मांगा गया है। साथ ही आंदोलन के दौरान मरने वाले कुल लोगों की संख्या, घायलों की संख्या और उनको दी गई चिकित्सा की भी जानकारी मांगी है। वहीं मामले की सुनवाई कर रही इलाहाबाद उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने राज्य सरकार को नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में हुए आंदोलन में मारे गये लोगों के परिजनों को शव विच्छेदन रिपोर्ट की प्रति देने तथा अदालत में भी एक प्रति रिकॉर्ड के रूप में रखने के निर्देश भी दिये। नि:संदेह न्यायिक सक्रियता के चलते आने वाले दिनों में योगी सरकार की मुश्किलें बढ़ती नजर आ रही हैं।

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