एक विवशता, गर्व करें या शर्म
विश्वनाथ सचदेव
गुरुग्राम से दरभंगा की दूरी लगभग बारह सौ किलोमीटर है। यह दूरी ज्योति पासवान ने सात दिन में पूरी की। यह एक सूचना है, जो समाचार तब बनती है जब इसमें यह जुड़ जाता है कि पंद्रह वर्ष की ज्योति ने अपने अपाहिज पिता को साइकिल पर पीछे बिठाकर यह दूरी पार की! यह समाचार व्यथित तब करता है, जब यह पता चलता है कि ज्योति और उसके पिता को यह कठिन यात्रा इसलिए करनी पड़ी कि गुरुग्राम में रिक्शा चलाकर जीवन-यापन करने वाले ज्योति के पिता पिछले एक अर्से से घायल होने के कारण रिक्शा नहीं चला पा रहे थे और लॉकडाउन के कारण उनका गुरुग्राम में रहना लगातार मुश्किल होता जा रहा था। इस पर मकान मालिक किराया न मिलने के कारण मकान खाली करवाने पर उतारू था। तब ज्योति ने साइकिल से घर पहुंचने का प्रस्ताव रखा और विवश पिता के पास बेटी के इस प्रस्ताव को मानने के अलावा और कोई चारा नहीं था। और वे दोनों निकल पड़े! बारह सौ किलोमीटर दूर अपने घर पहुंच भी गये।
पंद्रह साल की बच्ची द्वारा अपाहिज पिता को इस तरह घर पहुंचाने वाली बात कहीं भीतर तक छूती भी है और हिला भी देती है। लेकिन यह इस तरह की अकेली घटना नहीं है। इस लॉकडाउन के दौरान लाखों लोग तरह-तरह की मुसीबतें उठाकर, पैदल भी, सैकड़ों-हज़ारों मील की यात्रा के लिए विवश हुए हैं। ऐसी हर विवशता अपने आप में एक यातना-कथा है। एक त्रासदी है।
सवाल यह उठता है कि क्या ये कथाएं त्रासदी मात्र हैं? या फिर ज्योति जैसे उदाहरणों को प्रशंसात्मक टिप्पणी के साथ सजाकर कुछ समय बाद भुला दिया जाना ही इन यातना-कथाओं की नियति है? इन दोनों सवालों का जवाब नकारात्मक होना चाहिए। न तो ये त्रासदी मात्र हैं और न ही इन्हें भुलाया जाना चाहिए। बार-बार दोहराये जाने का खतरा उठाने के बावजूद यह कहना ज़रूरी है कि देश के विभाजन के बाद का यह सबसे बड़ा पलायन और इसकी त्रासदी, दोनों, टाले जा सकते थे। टालना शायद सही शब्द नहीं है यहां। इनसे बचा जा सकता था, बचा जाना चाहिए था।
बहरहाल, मैं ज्योति पासवान के उदाहरण की बात करना चाहता हूं। ज्योति की हिम्मत, उसके मज़बूत इरादे और उसके जीवट की प्रशंसा तो होनी ही चाहिए। लेकिन यह और ऐसे हज़ारों उदाहरण हमारी समूची व्यवस्था पर उंगली भी उठा रहे हैं। सच बात तो यह है कि ऐसा कोई भी उदाहरण हमें शर्मिंदा नहीं करता है और विडम्बना यह भी है कि ऐसे उदाहरणों की प्रशंसा करके हम जाने-अनजाने इस शर्मिंदगी से बचना चाहते हैं, बच निकलते हैं। लॉकडाउन के इन लगभग दो महीनों में सोशल मीडिया पर इस आशय की बहुत बातें हुई हैं। इस बात की व्यथा भी प्रकट की गयी है कि हमारी संवेदनाएं लगातार कुंद होती जा रही हैं। पत्थर होते जा रहे हैं हम भीतर ही भीतर। मानवीय संवेदनाओं का तकाज़ा है कि ज्योति जैसे उदाहरण जहां एक ओर किसी ज्योति के प्रति हमारे मन में प्रशंसा का भाव जगायें, वहीं एक शर्मिंदगी का अहसास भी हमें हो। क्यों किसी ज्योति को बारह सौ किलोमीटर तक अपने पिता को ढोना पड़े? क्यों किसी गर्भवती को सडक़ पर प्रसव के लिए मज़बूर होना पड़े? क्यों मेहनत करके रोटी कमाने वालों की ऐसी स्थिति हो जाये कि उन्हें पेट भरने के लिए हाथ फैलाने पड़ें?
ज्योति पासवान के संदर्भ में दो बातें और भी हुईं। पहली तो यह कि ज्योति की साइकिल चलाने की क्षमता को देखकर भारतीय साइकिल महासंघ ने उसके समक्ष ट्रायल का प्रस्ताव रखा है और दूसरी यह कि अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प की बेटी ने ज्योति के साहस की प्रशंसा की है। जहां तक पहली बात का सम्बंध है, यह अच्छी बात है कि हमारे किसी खेल-महासंघ को ज्योति जैसी किसी लडक़ी में संभावनाएं दिखी हैं। यह पहली बार नहीं है जब इस तरह अचानक हमारे किसी खेल-संघ को कोई संभावना दिख गयी है। सवाल यह है कि इस तरह की प्रतिभाओं को खोजने की कोई व्यवस्था हम कब करेंगे? अंतर होता है मिल जाने और खोजने में।
और अब बात अमेरिकी राष्ट्रपति की बेटी द्वारा ज्योति पासवान की प्रशंसा करने की। राष्ट्रपति ट्रम्प की बेटी इवान्का ट्रम्प ने ज्योति के इस साहस को, ‘प्यार और जीवट का एक शानदार कारनामा’ बताया है। उनकी प्रशंसा सही है, पर जिस तरह हमारा मीडिया इस प्रशंसा को प्रमुखता दे रहा है, वह एक ऐसी मानसिकता की ओर संकेत करता है जो हमारी कमज़ोरियों की देन है। निस्संदेह ज्योति ने अपने पिता के प्रति प्यार और कठिनाइयों की चुनौती को स्वीकार करने का जीवट दिखाया है। पर इसे अमेरिकी राष्ट्रपति की बेटी के शब्दों से ही समझना हमारी विवशता क्यों हो? किसी इवान्का का ट्वीट पढक़र ही हमें यह अहसास क्यों हो कि किसी ज्योति ने कोई प्रशंसनीय काम किया है? इस मानसिकता से उबरना होगा हमें।
यह बात हर स्वाभिमानी भारतीय को चुभनी चाहिए कि क्यों किसी ज्योति को बारह सौ किलोमीटर की यात्रा साइकिल से करनी पड़ती है? सच बात तो यह है कि इस कोरोना-काल में लाखों भारतीयों को जिस तरह पलायन का शिकार होना पड़ा है वह एक राष्ट्रीय संकट है। ऐसे में सरकारों की भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगने स्वाभाविक हैं। इसमें सरकार की कमियों, गलतियों की बात उठनी ही चाहिए और सरकार को भी चाहिए कि वह अपनी आलोचना को सकारात्मक दृष्टि से देखे। पर जो दिख रहा है, वह यह है कि सरकारी पक्ष कमियों को सुधारने के बजाय, येन-केन-प्रकारेण अपने बचाव में लगा है। यह समय राजनीति का नहीं है, इसे सरकार और विपक्ष दोनों को समझना होगा। सत्ता-पक्ष का दायित्व बनता है कि वह अपनी गलतियों को सुधारे। विपक्ष द्वारा की गयी हर आलोचना के पीछे राजनीति देखना भी गलत है और राजनीतिक लाभ के लिए ही कुछ कहना या करना विपक्ष के लिए भी उचित नहीं है।
बात भले ही किसी एक ज्योति पासवान से शुरू हुई हो, पर बात जाती बहुत दूर तक है। सरकार को इस बात को समझना होगा कि किसी भी ज्योति की विवशता सरकार के किये-अनकिये पर सवालिया निशान लगाती है। इन सवालों के जवाब तलाशना, स्थिति को सुधारना, शासन का ही दायित्व होता है। सरकार के कहे-किये में यह स्पष्ट झलकना चाहिए कि वह अपने दायित्व के प्रति सावधान है। यह सवाल आज भी उठ रहा है, और कल भी उठेगा कि एक कल्याणकारी राज्य में किसी नागरिक को बारह सौ किलोमीटर पैदल चलकर, अथवा साइकिल से, अपने ‘घर’ पहुंचने की मज़बूरी का सामना क्यों करना पड़ता है? यह दुर्भाग्य ही है कि इस सवाल का जवाब तलाशने की इच्छा शासन और समाज, दोनों में, दिखाई नहीं दे रही।