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एक अपराध से उपजे अनेक सवाल


क्षमा शर्मा

निर्भया के दुष्कर्म की घटना के लगभग आठ साल बाद पिछले दिनों चंदपा, जिला हाथरस में एक उन्नीस साल की दलित लड़की के साथ नृशंसता और दुष्कर्म की घटना देश में छाई रही है। चंदपा, हाथरस से बारह किलोमीटर दूर है, मगर नाम बार-बार हाथरस का आया ।

इस बच्ची के साथ जो घटना हुई, वह दिल दहला देने वाली है। हालांकि वहां की पुलिस ने कहा कि शुरुआती रिपोर्ट में दुष्कर्म नहीं, मारपीट का ही जिक्र था। यही नहीं, सोशल मीडिया के कुछ वीर तरह-तरह की अफवाहें भी फैलाने लगे। कुछ लोग यह भी बताने लगे कि परिवार पहले तो कुछ करना नहीं चाहता था, लेकिन जैसे ही राजनीति के पंडित वहां पहुंचे, मामले ने तूल पकड़ लिया। जो भी हो, उस लड़की के साथ क्या हुआ, वह अब कभी बताने नहीं आएगी। उसकी जान जा चुकी है।

सामाजिक समरसता और न्याय की मांग तो उसी दिन कमजोर पड़ गई, जिस दिन इसे स्त्री के प्रति भीषण अपराध न बताकर, दलित और सवर्ण के खाने में बांट दिया गया। हद तो यह हो गई कि बहस यहां तक आ पहुंची कि दलित और सवर्ण स्त्री के साथ दुष्कर्म की पीड़ा अलग-अलग होती है। औरतों को न्याय दिलाने की यह कैसी परिभाषा है। सच है कि दलित हमारे समाज में पीडि़त हैं। उन्हें न्याय मिलना ही चाहिए लेकिन बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को जो भी स्त्री झेलती है, उसकी पीड़ा एक जैसी होती है। फिर वह चाहे दलित हो, सवर्ण हो, ओबीसी हो या अल्पसंख्यक।

क्या ऐसा कोई सर्वेक्षण हुआ, जिसमें इस तरह की पीड़ा को झेलने वाली स्त्रियों से बात की गई हो, उनकी जांच की गई हो। और पाया गया हो कि उनकी पीड़ा अलग–अलग थी। या कि सवर्ण स्त्रियों के साथ हुआ दुष्कर्म, जघन्य अपराध है ही नहीं। दरअसल अधिकांश नेताओं को किसी स्त्री के प्रति हुए अपराध की चिंता तभी तक होती है, जब तक उनके चुनावी गणित में कोई फायदा होता दिखता है। वरना उन्हें जातिवाद की राजनीति और महिलाओं को दोयम दर्जे का नागरिक समझने से कोई परहेज नहीं है। तभी तो गाहे-बगाहे ऐसे बयान सामने आते रहते हैं, जो महिलाओं के सम्मान की खातिर दिए गए तो कतई नहीं लगते।

चैनल्स और सोशल मीडिया में ये छा जाते