इतना कमजोर विपक्ष
देश के जाने-माने बुद्धिजीवी इस बात से चिंतित हैं कि भारत में विपक्ष बहुत कमजोर हो गया है। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित भारतीय मूल के अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी ने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में कहा कि विपक्षी राजनीतिक दल एकजुट नहीं हैं, जिस कारण वे सरकार पर दबाव बनाने में नाकाम हैं। बनर्जी ने कहा कि भारत को बेहतर विपक्ष की जरूरत है। यही बात प्रख्यात इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने कुछ दिनों पहले कही थी।
कोझिकोड में आयोजित केरल लिटरेचर फेस्टिवल में उन्होंने कहा था कि बीजेपी से मुकाबले के लिए एक विश्वसनीय और स्थिर विपक्ष की जरूरत है। यह भी कि राहुल गांधी में यह क्षमता नहीं है कि वह ऐसे विपक्ष का नेतृत्व कर सकें। इस संबंध में उन्होंने आगे कहा कि युवा भारत पांचवीं पीढ़ी का वंशवाद नहीं चाहता। अपोजिशन को लेकर और भी कई लोग समय-समय पर सवाल उठाते रहे हैं। दरअसल, किसी भी जनतांत्रिक व्यवस्था के लिए आदर्श स्थिति यह होती है कि समान क्षमता वाली कम से कम दो पार्टियां वहां मौजूद रहें। एक सत्ता में हो और दूसरी विपक्ष में।
भारत में आजादी के बाद लंबे समय तक कांग्रेस का वर्चस्व रहा, लेकिन विपक्ष की भी संसद से लेकर सडक़ तक मुखर मौजूदगी रही। बतौर प्रधानमंत्री नेहरू ने उसे पर्याप्त महत्व दिया। फिर गैर-कांग्रेसवाद के नारे के तहत विभिन्न पार्टियों ने कांग्रेस को चुनौती दी। उन्हीं पार्टियों के बीच से जनसंघ की धारा समय के साथ मजबूत होती गई और बीजेपी के रूप में वह कांग्रेस के समानांतर खड़ी हो गई। तब गैर-कांग्रेस और गैर-बीजेपी दलों ने तीसरे मोर्चे की अवधारणा पेश की लेकिन उससे जुड़े दल देर तक एकजुट नहीं रह पाए और मौका देखकर वे कभी कांग्रेस तो कभी बीजेपी का दामन थामने लगे। बीच में लगा कि कांग्रेस और बीजेपी के गठबंधनों यूपीए और एनडीए के रूप में दो वैचारिक खेमों की सियासत अमेरिका-ब्रिटेन की तरह भारत में भी चलेगी। फिर बीजेपी ने यूपीए सरकार के कमजोर फैसलों का हवाला देते हुए मजबूत केंद्रीय सत्ता के नाम पर वोट मांगे और उसे जबर्दस्त जन समर्थन प्राप्त हुआ। उसके बाद से कई बार ऐसा लगा कि विपक्ष एकजुट होकर मोदी सरकार को चुनौती देगा लेकिन वह एकता टिकाऊ नहीं हो पाई।
कांग्रेस की मुश्किल यह है कि उसका अतीत उसके साथ चिपका हुआ है और उस पर एक परिवार का लेबल भी लगा है। इस कारण वह आक्रामक होने के बजाय प्राय: रक्षात्मक ही दिखती है। उसका कोई नया-ताजा नेतृत्व होता तो वह अतीत को परे रख अभी के मुद्दों पर हमलावर हो सकता था। लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा। कांग्रेस का जमीनी ढांचा जर्जर हो चुका है। पार्टी के पास कार्यकर्ता नहीं हैं और नेताओं में जनता के बीच रहकर सघर्ष करने की कोई प्रवृत्ति नहीं है। क्षेत्रीय पार्टियां न तो अपने दायरे से निकलती हैं, न किसी को उसमें घुसने देना चाहती हैं। सरकार के सामने एकजुट राजनीतिक प्रतिपक्ष की अनुपस्थिति भारतीय लोकतंत्र के लिए कोई शुभ लक्षण नहीं है।