आलोचना को धैर्य-ध्यान से सुने सरकार
विश्वनाथ सचदेव
डेनमार्क के एक लेखक ने लिखी थी यह कहानी। लगभग दो सौ साल पहले की बात है। कहानी का शीर्षक है राजा के नये कपड़े। कथानक कुछ इस तरह है कि दो जुलाहे राजा को अनोखे कपड़े बनाकर देने का वादा करते हैं। जुलाहों के अनुसार इन कपड़ों की विशेषता यह है कि ये सिर्फ उन्हें ही दिखेंगे जो या तो अपने पद के काबिल नहीं है या फिर जो मूर्ख हैं। जुलाहे राजा को वह कपड़े पहनाने का नाटक करते हैं। अब राजा की सवारी निकलती है। कोई नहीं चाहता कि उसे पद के अयोग्य अथवा मूर्ख समझा जाये, इसलिए सब उन कपड़ों की तारीफ करते हैं। पर एक बच्चा सच बोल देता है-कह देता है कि राजा बिना कपड़े पहने सबके सामने आ गया हैज् स्वयं राजा को भी यही लगता है, पर वह यह बोलता नहींज् एण्डरसन द्वारा लिखी यह कहानी दुनिया भर की भाषाओं में अनूदित हो चुकी है और एक कहावत की तरह काम में ली जाती है। किसी भय या आशंका से सच न बोलने वालों के संदर्भ में राजा के नये कपड़ों का हवाला दिया जाता है।
हाल ही में एक टी.वी. कार्यक्रम में जब देश के प्रसिद्ध उद्योगपति राहुल बजाज ने देश के गृहमंत्री और अन्य मंत्रियों की उपस्थिति में सत्ता के भय का हवाला देते हुए कहा कि व्यावसायिक जगत सरकार की आलोचना करने से डरता है तो अनायास यह कहानी याद आ गयी। राहुल बजाज ने यह बात उद्योग की स्थिति, साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के बयानों और भीड़ के उन्माद की घटनाओं आदि के संदर्भ में कही थी। ऐसा लगा जैसे देश का यह अग्रणी उद्योगपति उस बच्चे की भूमिका निभा रहा है, जिसने राजा के कपड़ों का सच उजागर किया था। दि इकोनोमिक टाइम्स द्वारा आयोजित उस कार्यक्रम में देश के लगभग सभी बड़े उद्योगपति उपस्थित थे। राहुल बजाज ने उन सबकी ओर इशारा करते हुए कहा था—हमारे उद्योगपति मित्रों में से कोई नहीं बोलेगाज् पर मैं स्पष्ट कहना चाहता हूं कि हमें विश्वास नहीं होता कि यदि हम सरकार की आलोचना करेंगे तो आप (यानी गृहमंत्री) इसे पसंद करेंगे। स्पष्ट है, वे कहना चाहते थे कि सरकार को आलोचना स्वीकार नहीं है। राहुल बजाज को वहां उपस्थित किसी भी उद्योगपति का समर्थन नहीं मिला। बजाज कह रहे थे कि कोई सच बोलना नहीं चाहता और बताना यह चाह रहे थे कि जनतंत्र में सच बोलना ज़रूरी होता है।
कार्यक्रम में उपस्थित गृहमंत्री ने भय के ऐसे किसी भी कारण को नकारते हुए कहा कि देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से पटरी पर चल रही है। फिर भी यदि ऐसी कोई धारणा बन रही है और भय का वातावरण बनने की बात की जाती है तो सरकार इस धारणा को समाप्त करने के लिए आवश्यक कदम उठायेगी। यह अच्छी बात है कि गृहमंत्री ने वरिष्ठ उद्योगपति के भय के परसेप्शन को दूर करने की ज़रूरत को महसूस किया। लेकिन इसके बाद केंद्र सरकार के मंत्रियों ने जिस तरह इस परसेप्शन अर्थात धारणा को नकारने का अभियान-सा चलाया है, उससे लगता है कि शासन अपनी आलोचना सुनने के लिए तैयार नहीं है।
जनतंत्र का तकाज़ा है कि आलोचना को ध्यान और धैर्य से सुना जाये और यदि आलोचना में कुछ भी सच्चाई है तो स्थिति को सुधारने की ईमानदार कोशिश की जाये। सवाल किसी एक उद्योगपति द्वारा की गयी आलोचना का नहीं है, सवाल जनतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास का है। उस आस्था का है जो जनतंत्र के प्रति हमारे भीतर होनी चाहिए। आलोचना करने वाले को भी ध्यान रखना चाहिए कि उसके आरोप तथ्यों पर आधारित हों और जिसकी आलोचना हो रही है, वह भी आरोपों की गंभीरता को समझे, यह जानने की कोशिश करे कि आरोपों में कहीं कोई सच्चाई तो नहीं है। संसद और सड़क पर, दोनों जगह, इस तरह क