अंधेरी राह में रोशनी करने का वक्त

विश्वनाथ सचदेव
पच्चीस साल पुरानी बात है। दूरदर्शन के डीडी मेट्रो पर रात के दस बजकर बीस मिनट पर एक कार्यक्रम आता था-आज तक। यह शुरुआत एस.पी. सिंह ने की थी और जब वे अंत में कहते थे 'यह थे समाचार आज तक, इंतज़ार कीजिए कल तक तो सचमुच दर्शक चौबीस घंटे बाद का इंतज़ार करने लगते थे। भले ही यह कार्यक्रम सरकारी चैनल पर समय किराये पर लेकर होता था, पर इसने अपनी एक विश्वसनीयता बनायी थी। एक तरह से यह शुरुआत थी निजी समाचार चैनलों की।
आज देश में चार सौ से अधिक समाचार चैनल हैं जो चौबीसों घंटे समाचार के नाम पर कुछ न कुछ परोस रहे हैं। पच्चीस साल पहले 'आज तक ने समाचारों की दुनिया में विश्वसनीयता का एक माहौल बनाने की कोशिश की थी, आज समाचारों के साथ विश्वसनीयता का जुडऩा एक मज़ाक बन कर रह गया है। अपवाद हैं, इसमें संदेह नहीं, पर हकीकत यह है कि समाचारों की दुनिया एक शोर मचाऊ जंगल का रूप ले चुकी है। प्रिंट मीडिया यानी अखबारों से तो फिर भी विश्वसनीयता की गंध आ जाती है, पर सारा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया यानी टीवी के समाचार चैनल इस प्रतियोगिता में लगे हैं कि सबसे अधिक अविश्वसनीय कौन है!
जानकारी देना मीडिया का कर्तव्य है और सही जानकारी पाना दर्शकों-श्रोताओं का अधिकार। पर जहां मीडिया अपने हितों को देखते हुए यह तय कर रहा है कि दर्शक को क्या जानकारी देनी चाहिए, वहीं ठगा-सा दर्शक यह नहीं समझ पा रहा कि जानकारी के नाम पर उसे जो परोसा जा रहा है, वह कितना उचित या सही है। इस वाक्य में 'अपने हितों को मैं रेखांकित करना चाहूंगा। अक्सर इसका मतलब अपना आर्थिक लाभ ही होता है। यह विडम्बना ही है कि आज अधिसंख्य समाचार चैनल किसी व्यक्ति-विशेष, किसी राजनीतिक दल के साथ जुड़े दिखाई दे रहे हैं। प्रिंट मीडिया में भी एक सीमा तक ऐसी स्थिति दिख जाती है, पर टीवी के समाचार चैनलों ने तो जैसे हदें ही पार कर दी हैं। भले ही कुछ पत्रकार यह समझ रहे हों कि वे राजनीति चला रहे हैं, पर दुर्भाग्य से हकीकत यह है कि राजनीति के हाथ में हमारी पत्रकारिता की नकेल है।
सालों पहले देश के एक नामी पत्रकार ने कहा था, 'देश में प्रधानमंत्री के बाद दूसरे नम्बर का महत्वपूर्ण व्यक्ति मैं हूं। यह सज्जन एक बड़े अखबार के बड़े सम्पादक थे। तब इस बात को एक मज़ाक के रूप में लिया गया था, पर आज तो स्थिति यह है कि हमारे समाचार-चैनलों के कर्ता-धर्ता सचमुच यह मानने लगे हैं कि चुनाव की राजनीति भले ही कोई और कर रहे हों, पर असली राजनेता वही हैं।
कुछ दिन पहले सोशल मीडिया पर एक संदेश काफी वायरल हुआ था। इसमें एक जज, एक राजनेता, एक कामेडियन और एक पत्रकार को दिखाया गया था, और कहा गया था, 'जज राजनेता बन गये हैं और राजनेता कामेडियन। कामेडियन अपने आप को पत्रकार समझ रहे हैं और पत्रकार यह समझ रहे हैं कि वे राजनेता हैं। इस नासमझी और उलटे-सीधे समीकरणों का ही परिणाम है कि आज का मीडिया वह सब तो करता दिख रहा है जो उसे नहीं करना चाहिए, पर वह नहीं कर रहा जो उसे करना चाहिए।
यह सही है कि मीडिया या पत्रकारिता आज एक व्यवसाय बन चुका है और इसे सिर्फ मिशन के रूप में देखना सही नहीं होगा, पर यह भी तो किसी दृष्टि से सही नहीं है कि मीडिया सिर्फ व्यवसाय बनकर रह जाये। डिजिटल मीडिया की इस वित्तीय वर्ष की विज्ञापन-आय 262 बिलियन रुपये आंकी गयी है और यह इतनी बड़ी राशि टीआरपी के माध्यम से बंटती है। टीआरपी वह जादुई आंकड़ा है जो इस समूचे व्यवसाय में लगे लोगों ने बंटवारे के लिए मंजूर किया है। इसके लिए देश भर में कुल 22 हज़ार घरों में ऐसे मीटर लगाये गये हैं जो यह बताते हैं कि लोग कौन-सा कार्यक्रम कितनी देर तक देखते हैं। इसी 'समय के आधार पर तय होता है कौन-सा चैनल कितना विज्ञापन पाने का अधिकारी है। जाहिर है, इस खेल में वह सब होता है जो एक घटिया व्यापार में किया जाता है। यानी बेईमानी। इसी बेईमानी को लेकर आज देश में बहस भी चल रही है और कानूनी लड़ाई भी हो रही है।
यह टीआरपी प्रणाली जब से चल रही है, तब से विवादों के घेरे में ही है। इसकी अवैज्ञानिकता और अविश्वसनीयता स्वयं-स्पष्ट है। निश्चित रूप से कोई और तरीका खोजना ही होगा, जिससे टीआरपी यानी टेलिविजन रेटिंग प्वाइंट का यह खेल कुछ ईमानदारी से खेला जा सके। तरीका कुछ भी खोजा जाये, कहीं न कहीं इसमें विश्वसनीयता वाला कोई मानदंड तो होना ही चाहिए। हमें यह नहीं भूलना है कि हमारी समूची पत्रकारिता की विश्वसनीयता दांव पर लगी है। दूरदर्शन पर भरोसा इसलिए नहीं होता क्योंकि वह सरकारी नियंत्रण में है, इसलिए समय की सरकार के साथ खड़े होना उसकी मज़बूरी है। समाचार भारती के गठन के बावजूद दूरदर्शन सरकारी चंगुल से उबर नहीं पाया है।
निजी समाचार चैनलों से यह आशा की गयी थी कि वे निष्पक्ष पत्रकारिता का कुछ उदाहरण प्रस्तुत करेंगे। 'इंतज़ार कीजिए कल तक वाली आश्वासन की आवाज़ भी आज कहीं खो गयी है। राजनीतिक दलों और राजनेताओं के साथ चैनलों के नाम जुड़ते जा रहे हैं। दूसरी तरफ समाचार चैनलों के स्वामित्व का मामला है। इस क्षेत्र में कारपोरेट घरानों की भूमिका ने समूची पत्रकारिता को नफे-नुकसान के खेल में बदल दिया है। ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ हमारे देश में ही हो रहा है या फिर यह अभी ही हो रहा है। पहले भी होता रहा है, और दुनिया भर के देशों में होता है। पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि ईमानदार पत्रकारिता की आशा ही छोड़ दी जाये।
स्थिति विषम है, इसमें संदेह नहीं, लेकिन 'है अंधेरी राह पर दीया जलाना कब मना है।' रोशनी तो करनी ही होगी। विश्वसनीयता पत्रकारिता का प्राण है। टीआरपी के खेल और होड़ में लगे वर्गों से ज़्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती। यह काम पाठकों-दर्शकों को अपने हाथ में लेना होगा। हमें समाचार चैनलों से पूछना होगा कि किसानों का आंदोलन, बेरोजग़ारी, बीमारी, गरीबी, बदहाल शिक्षा जैसे मुद्दे उनकी चिंता का विषय क्यों नहीं बनते? बढ़ती महंगाई पर टीवी में बहस क्यों नहीं होती? शोर-मचाऊ पत्रकारिता विवेक पर हावी क्यों होती जा रही है? ज़रूरी है कि हम 'बड़ी खबर और 'ब्रेंकिंग न्यूज की परिभाषा बदलें। हम यानी दर्शक-श्रोता। तब उनकी नींद खुलेगी जो समाचार चैनलों की ऊंची कुर्सियों पर बैठकर स्वयं को 'सर्वशक्तिमान मानने का घटिया खेल, खेल रहे हैं। दर्शकों की आशाओं और विश्वास के साथ मज़ाक अब बंद होना चाहिए- तब वह कल तक इंतज़ार करेगा।