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अहंकार की बाधा


एक आदमी एक रात एक झोपड़े में बैठ कर, छोटे से दीये को जला कर कोई शास्त्र पढ़ता रहा। फिर आधी रात गए थक गया, फूंक मार कर दीया बुझा दिया। और तब बड़ा हैरान हो गया! जब तक दीया जल रहा था, पूर्णिमा का चांद बाहर ही खड़ा रहा, भीतर न आया। जब दीया बुझ गया, उसकी धीमी-सी टिमटिमाती लौ खो गई, तो चांद की किरणें भीतर भर आईं। द्वार-द्वार, खिडक़ी-खिडक़ी, रंध्र-रंध्र से चांद भीतर नाचने लगा। वह आदमी बहुत हैरान हो गया! उसने कहा कि ‘एक छोटा-सा दीया, इतने बड़े चांद को बाहर रोके रहा?’ हमने भी बहुत छोटे-छोटे दीये जलाए हैं अपने अहंकार के, मैं के, उनकी वजह से परमात्मा का चांद बाहर ही खड़ा रह जाता है। समाधि का अर्थ है— फूंको और बुझा दो इस दीये को, हो जाने दो अंधेरा। मिटा दो यह ज्योति जिसे समझा है मैं, और तत्काल चारों तरफ से वह आ जाता है, सब तरफ से आ जाता है, जिसे हमारे इस छोटे से अहंकार ने, मैं ने रोक रखा है। प्रस्तुति : सुभाष बुड़ावनवाला


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