अयोध्या आंदोलन में रही निर्णायक भूमिका

विष्णुगुप्त
हिन्दू आस्था और अस्मिता के प्रतिमान प्रभु श्रीराम के अयोध्या में मंदिर निर्माण की प्रक्रिया गतिशील है। भूमि पूजन के साथ ही प्रत्याशित आशा पूरी हो गयी। यह देश ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में उत्साह और हर्ष का विषय बन गया। अयोध्या नगरी और प्रभु श्रीराम हिन्दू त्याग और बलिदान के भी प्रतीक बन गये हैं। यह कोई एक-दो साल का संघर्ष नहीं रहा है, पूरे पांच सौ साल का संघर्ष रहा है।
कोई भी बड़ा आंदोलन और अभियान सफल तब होता है जब उसके प्रति गहरी आस्था होती है, समर्पण होता है, उसका कोई न कोई आईकॉन होता है। जब तक आस्था और समर्पण का सक्रिय प्रकटीकरण नहीं होता तब तक उसका कोई प्रभाव सामने नहीं आता। श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन में कई ऐसे आईकॉन हैं जो आस्था और समर्पण के प्रकटीकरण सुनिश्चित करने के आइकॉन बने हैं, बलिदानी बने हैं। इनमें से एक थे अशोक सिंघल। अशोक सिंघल को राममंदिर आंदोलन का चीफ आर्किटेक्ट कहा जाता है। अशोक सिंघल ने कहा था कि एक-दो साल नहीं बल्कि आठ सौ साल बाद भारतीय अस्मिता की सोच वाली सत्ता की वापसी हुई है। उनका तात्पर्य नरेन्द्र मोदी की 2014 में जीत से था।
अशोक सिंघल ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से धातुकर्म में इंजीनियरिंग की थी। अशोक सिंघल ने इंजीनियरिंग की नौकरी न करने की ठान ली और संघ का प्रचारक बनना स्वीकार कर लिया। आपातकाल के दौरान उनकी भूमिका इन्दिरा गांधी की सरकार के प्रति आक्रोश उत्पन्न कराने की थी। दिल्ली में इन्दिरा गांधी की इमरजेंसी के खिलाफ व्यूह रचना और आंदोलन में भी इनकी भूमिका अग्रणी थी। वे इमरजेंसी के दौरान कभी पकडे नहीं गये। संघ ने उन्हें बड़े लक्ष्य के लिए विश्व हिन्दू परिषद से जोड़ दिया।
उनकी सोच थी कि हिन्दुओं में अपने देश, धर्म और संस्कृति के प्रति आस्था तो होनी ही चाहिए पर इस आस्था के प्रकटीकरण के लिए सबल आग्रह भी होना चाहिए। बिना तेवरों के किसी लक्ष्य की पूर्ति नहीं हो सकती। अशोक सिंघल ने इसे समझने के लिए दिल्ली में इन्दिरा गांधी सरकार के दौरान गो हत्या के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले सैकड़ों निहत्थे साधुओं पर पुलिस की गोलियां चलाने की घटना को चुना। उनका कहना था कि इस नरसंहार के खिलाफ देश भर में आवाज क्यों नहीं उठी? इसलिए कि हम अपने हितों की रक्षा के प्रति उदासीन होते हैं।
दिल्ली में दो सम्मेलनों ने देश की राजनीतिक धारा में परिवर्तन लाने और हिन्दुत्व के उभार में बड़ी भूमिका निभायी थी। 1981 में डॉ. कर्ण सिंह के नेतृत्व में एक विराट हिन्दू सम्मेलन का आयोजन हुआ था। 1984 में दिल्ली के विज्ञान भवन में एक धर्म संसद का आयोजन हुआ था। इन दोनों सम्मेलनों में पहली बार सनातन हितों पर राष्ट्रीय चर्चा हुई। इन दोनों सम्मेलनों में न केवल देश से बड़ी-बड़ी हस्तियां जुटी थीं बल्कि विदेशों से भी बड़ी हस्तियां आयी थीं। इन्हीं दोनों सम्मेलनों में राम जन्मभूमि को मुक्त कराने की चर्चा हुई थी। इन दोनों सम्मेलनों के पीछे अशोक सिंघल का ही दिमाग था।
जब विवादित स्थल का ताला खुला और प्रभु श्रीराम की प्रार्थना-पूजा करने की अनुमति मिली तब अशोक सिंघल ने श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति के आंदोलन को राजनीति का यक्ष प्रश्न बना दिया। लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा, गांव-गांव और घर-घर ईंट पूजन समारोह मनाने, एक पिछड़े-दलित कामेश्वर चौपाल से ईंट पूजन कराने से लेकर विवादित स्थल के विध्वंस तक की पूरी व्यूह रचना के शिल्पी अशोक सिंघल रहे थे।
नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कराने और गुजरात में नरेन्द्र मोदी के साथ पूरी शक्ति व समर्थन के साथ खड़े रहने वालों में अशोक सिंघल भी शामिल रहे हैं। जब राष्ट्र धर्म के सिद्धांत पर गद्दी छोडऩे का दबाव पड़ा तब अशोक सिंघल ने आडवाणी के साथ मिलकर पराक्रम दिखाया। वे अपने विरोधियों के कर्म से विचलित नहीं होते थे। जब उन्होंने नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर कहा कि आठ सौ साल बाद सनातन सत्ता वापस लौटी है तब देश की तुष्टीकरण की राजनीति ने सवाल उठाये थे। देश से लेकर विदेश तक इसकी गूंज हुई थी लेकिन वे अपने बयान पर कायम रहे।
राष्ट्र में अलख जगाने वाले और देशभक्ति को कर्म मानने वाले अशोक सिंघल को पर्याप्त सम्मान मिलना चाहिए।
श्रीराम जन्मभूमि निर्माण जो अब सच हो गया है, उसके पीछे अशोक सिंघल के सघर्ष को हमेशा याद किया जायेगा।