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अब जरूरत तो मीडिया को आत्मावलोकन की है...!


अजय बोकिल

अमूमन कोर्ट और खासकर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों पर प्रतिक्रिया देने और उनकी मीमांसा करने वाले मीडिया ने हाल में देश के प्रधान न्यायाधीश एन.वी.रमणा द्वारा मीडिया और विशेष रूप से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर की गई तल्ख टिप्पणी पर कोई खास प्रतिक्रिया नहीं आई। ऐसा क्यों? क्या इसलिए कि सीजेआई रमणा ने जो कहा वो हकीकत है या फिर मीडिया इस टिप्पणी पर आत्म चिंतन करने की बजाए एजेंडा चलाने में ही अपना बहुआयामी हित देख रहा है? अथवा मीडिया जगत में हालात अब उस मुकाम तक पहुंच चुके हैं, जहां से विश्वसनीयता के उस बिंदु तक पहुंचने की कोशिश बेमानी है, जो कभी पत्र कारिता की साख का आधार होती थी ? जस्टिस रमणा ने हाल में रांची में नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ स्टडी एंड रिसर्च इन लॉ के एक कार्यक्रम में कहा कि आज देश में कई मीडिया संगठन कंगारू कोर्ट चला रहे है वो भी ऐसे मुद्दों पर, जिन पर फैसला करने में अनुभवी जजों को भी कठिनाई होती है। उन्होंने कहा कि न्याय देने से जुड़े मुद्दों पर ग़लत जानकारी और एजेंडा-संचालित बहसें लोकतंत्र के लिए हानिकारक साबित हो रही हैं। इसी के साथ उन्होंने यह भी कहा कि प्रिंट मीडिया तो अब भी कुछ हद तक जवाबदेह है, जबकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की कोई जवाबदेही नहीं है, वह जो दिखाता है वो हवाहवाई है। अगर इस वक्तव्य को थोड़ा और विस्तारित करें तो मामला उस सोशल मीडिया तक भी पहुंचता है, जिसका भगवान ही मालिक है और जो समाज में कनफ्यूोजन फैलाने में आज निर्णायक भूमिका रहा है। अफसोस की बात यह है कि कोई भी इसे प्रभावी ढंग से नियमित करने की बात नहीं करता।

जस्टिस रमणा ने जो कहा उसका आशय है कि आज न्याय देने वाली संस्था के समक्ष यह सबसे बड़ी चुनौती है कि बिना पुख्ता सबूतों और न्याय प्रक्रिया का पालन किए बगैर मनमाने ढंग से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया किसी को भी आरोपी के कटघरे में खड़ा कर देता है और एक खास परसेप्शन बनाते हुए उसे दोषी भी सिद्ध कर देता है। इस कथित च्दोषसिद्धिज् में भले ही कोई शारीरिक दंड न दिया जाता हो, लेकिन मानसिक प्रताडऩा किसी शारीरिक दंड की तुलना में कई गुना ज्यादा घातक होती है। कई बार तो मीडिया आरो