अप्रवासी मजदूर के ऐसी बेरुखी ठीक नहीं
नवल किशोर
आमतौर पर बेहतर या नई सम्भावनाओं की खोज हीं अप्रवास या पलायन के मूल कारण बनते हैं। इसमें मजदूर वर्ग अपने गृह प्रदेश की तुलना में आर्थिक रूप से सम्पन्न प्रदेशों की तरफ प्रस्थान करते हैं।
चूंकि इनका मूल प्रवास अपने गृह प्रदेश में ही रहता है इसलिए इन्हें अप्रवासी मजदूर की संज्ञा दी जाती है। ये समूह अपने श्रम कौशल का भरपूर दोहन करते हैं और उस कमाई से अपने घर परिवार के जरूरत तथा स्वाभिमान की रक्षा करते हैं।
गृह-राज्य की खराब अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी और विकास के अवसर की कमी पलायन की पृष्ठभूमि तय करती है। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में मजबूर होकर मजदूर दूसरे राज्यों में जाकर कमाते हैं और उसका एक निश्चित हिस्सा गृह राज्य में बसर कर रहे अपने परिवारजनों को प्रति माह भेजते हैं। इस प्रकार गृह राज्य के सामाजिक आर्थिक प्रगति में अप्रवासी मजदूर वर्ग की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इसके अलावा एक अन्य तबका भी है, जो गृह राज्य में शैक्षणिक सुविधाओं की कमी के कारण दूसरे राज्य की तरफ देखता है।
यह युवा वर्ग है जो अपनी प्रतिभा और बौद्धिकता से कुछ हासिल करना चाहते हैं। हालांकि ये समूह आर्थिक रूप से सम्पन्न होते हैं। ऐसे छात्रों-छात्राओं के माता-पिता उन्हें आईआईटी, मेडिकल या सिविल सर्विसेज जैसे अखिल भारतीय स्तर के परीक्षाओं की तैयारी हेतु शैक्षणिक सुविधाओं से विकसित प्रदेशों में अल्प-प्रवास के लिए भेजते हैं। कोरोना जैसी वैश्विक माहमारी से बचाव के लिए मोदी सरकार द्वारा घोषित चालीस दिवसीय लॉक-डाउन में अप्रवासी मजदूर वर्ग और दूसरे राज्यों में प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के लिए रहने वाले छात्र-छात्राएं सबसे ज्यादा दुारियां झेल रहे हैं।
लॉक-डाउन के बीच ये दोनों समूहों ने अपने गृह-राज्य में वापसी के लिए प्रबंधन के लिए केंद्र और राज्य सरकारों से गुहार लगाते रहे। इनकी सुनी तो गई मगर काफी देर बाद। यूपी, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ जैसे कई राज्य सरकारों ने सक्रिय पहल कर मजदूरों और विद्यार्थियों की वापसी के लिए त्वरित करवाई की। परंतु बिहार सरकार ने बाकी राज्यों के मुकाबले काफी विलंब से मजदूरों-छात्रों को लाने की पहल की। विदित हो कि इस संदर्भ में नीतीश कुमार ने यूपी और दिल्ली सरकार की आलोचना करने की जल्दबाजी भी कर डाली। उनके लिए मजदूरों और छात्रों को संकट से निकलने से ज्यादा लॉक-डाउन का पालन महत्त्वपूर्ण लगा। बिहार के लगभग पचास फीसद घरों से अप्रवासी मजदूर आते हैं और उस राज्य का मुख्यमंत्री उन्हें राहत देने से भागते रहे। आखिर क्यों? लॉक-डाउन का उल्लंघन तो तब भी जब सरकार ने भाजपा विधायक को कोटा आने-जाने पास जारी किया? इसके अलावा अन्य राज्य सरकारें अपने-अपने अप्रवासी मजदूरों और विद्यर्थियों को कैसे राहत दे रहे हैं? लगभग सत्रह लाख बिहारी अप्रवासी मजदूर विभिन्न राज्यों में फंसे हैं। हालांकि कुछ हजार मजदूर भले पिछले कुछ दिनों में बिहार आए, मगर अब भी बड़ी संख्या में मजदूर कई राज्यों में फंसे हुए हैं। बिहार सरकार का पटना उच्च न्यायालय में ये हलफनामा कि अप्रवासी बिहारियों को वापस नहीं बुला सकती, बेहद अमानवीय है। गृह मंत्रालय द्वारा जारी सूचना के आलोक में भी बिहार सरकार ने अप्रवासी मजदूरों और विद्यार्थियों को वापस लाने की कोई ठोस योजना नहीं जारी की। राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी राजद लगातार मजदूरों और छात्रों को वापस लाने के लिए अपील करती रही। काफी दबाव के बाद नीतीश सरकार दूसरे राज्यों में फंसे मजदूरों और छात्रों को लाने के बारे में रजामंद हुई।
नवम्बर 2005 से नीतीश कुमार लगातार मुख्यमंत्री रहे हैं। सुशासन और विकास के बिंदुओं पर ही चुनावी रण जीतते रहे हैं। उनके संदर्भ में चेहरे, छवि और शुचिता का भी जिक्र होता रहा है, लेकिन विगत पंद्रह वर्षो में न तो मजदूरों का पलायन रु का है और न ही शैक्षणिक सुविधाओं में कोई ठोस प्रगति हुई है। अन्यथा अप्रवासी मजदूरों और विद्यार्थियों की इतनी बड़ी संख्या बिहार से बाहर क्यों जाती? हाल के वर्षो में नीतीश प्रशासन पर कई बार उंगलियां उठी है। सृजन घोटाला से लेकर मुजफ्फरपुर शेल्टर होम की घटना सीबीआई के जिम्मे है; वहीं पटना में जलजमाव से लेकर चमकी बुखार से नौनिहालों की मौत की खबर बिहारियों के जहन में अभी भी ताजा है। क्या अप्रवासी मजदूरों और विद्यार्थियों को संकट से बचाने में विफलता नीतीश सरकार को असहज करेगी। चुनावी वर्ष में यह आकलन के निर्णायक बिंदु हो सकते हैं।