अपराध सींचती व्यवस्था

राजनीति व पुलिस में रसूख रखने वाले कुख्यात अपराधी विकास दुबे व उसके गुर्गों द्वारा एक डीएसपी समेत आठ पुलिसकर्मियों की हत्या ने देश को झकझोरा है। पुलिस एक भूमि विवाद में वांछित विकास दुबे को गिरफ्तार करने गई थी। घटना जहां हमारे तंत्र व समाज की विफलता को दर्शाती है, वहीं पुलिस के खुफियातंत्र की नाकामी को भी उजागर करती है। पुलिस को इस बात की भनक नहीं थी कि अपराधी ने बड़े हमले की तैयारी कर रखी है, मगर थाने से अपराधी को सूचित कर दिया गया था कि पुलिस पार्टी उसके घर दबिश देने आ रही है। विडंबना देखिये कि जनता की सुरक्षा का जिम्मा संभालने वाले कुछ पुलिसकर्मी तनख्वाह तो कानून व्यवस्था के लिये ले रहे थे मगर काम अपराधी के लिये कर रहे थे। उन्हें इस बात का खौफ नहीं था कि वे अपने साथियों को मौत के मुंह में धकेल रहे हैं। हालांकि, चूक तो पुलिस के स्तर पर भी थी। निस्संदेह नक्सली या आतंकी हमलों के विपरीत नागरिक जीवन में पुलिस पर होने वाले ऐसे हमले कम ही नजर आते हैं, मगर पुलिस बड़े खतरे को कल्पित कर पूरी सुरक्षा की तैयारियों के साथ नहीं गई थी। निस्संदेह यह घटना भविष्य में पुलिस की रणनीतियों का निर्धारण करेगी। जरूरत इस बात की है कि ऐसे अपराधी को सहयोग-संरक्षण देने वाले तत्व भी बेनकाब हों। यहां सवाल यह भी है कि साठ मामलों में नामजद दुर्दांत अपराधी सार्वजनिक जीवन में कैसे सक्रिय था। उस पर आरोप है कि उसने थाने में घुसकर एक नेता व पुलिसकर्मी तक की हत्या कर दी थी। उसे सजा हुई तो वह जेल के अंदर से अपना गैंग चलाता रहा। यदि वह ऐसा कर पा रहा था तो उसके पीछे राजनीतिक संरक्षण तो स्वाभाविक ही है मगर शासन-प्रशासन की चूक और समाज की उदासीनता भी शामिल है।
एक कुख्यात अपराधी यदि बेफिक्र होकर सामाजिक-राजनीतिक जीवन में सक्रिय था तो निस्संदेह कानून अपना काम नहीं कर रहा था। यह सवाल विचारणीय है कि ऐसा क्यों था। जो तमाम कानून की व्यवस्थाओं और समाज के ऐसे मामलों में तटस्थता की नीति पर सवाल खड़ा करता है। यानी हमारी व्यवस्था में व्याप्त तमाम छिद्रों को वह अपने अवसरों में बदलता रहा। यहां तक कि प्रलोभन में पुलिस वाले भी अपराधी के लिये मुखबिरी कर रहे थे। कुछ पुलिसकर्मियों के निलंबन व गिरफ्तारी की कार्रवाई इसका प्रमाण है। निस्संदेह सख्त कार्रवाई की दरकार है। उत्तर प्रदेश ही नहीं, पूरे देश की पुलिस के लिये यह घटना बड़ा सबक है। अत्याधुनिक हथियारों से लैस होते अपराधियों से जूझने के लिये सुरक्षा मानकों की रणनीति व खुफिया नीति में बदलाव की जरूरत है। यह इसलिये भी जरूरी है क्योंकि अपराधियों के आगे पुलिस की शिकस्त आम लोगों का मनोबल भी गिराती है। जाहिर है कि जिस भी सनक में विकास दुबे ने पुलिस पर हमला किया, उससे एक बात साफ है कि बिना राजनीतिक संरक्षण के वह ऐसा करने का साहस नहीं जुटा पाता। इस प्रत्यक्ष व परोक्ष संरक्षण से ही उसने पुलिस पार्टी पर हमला करने का दुस्साहस किया। इतने अपराधों में वांछित होने के बावजूद वह समाज में सुनियोजित अपराधों को अंजाम दे पा रहा था तो साफ है कि उसने हर दल के शासन काल में अपनी दखल बनाये रखी। यानी वह राजनेताओं को सत्ता की चाबी दिलाने में सहायक रहा है। सवाल योगी सरकार पर भी है कि जब उसने राज्य में बड़े अपराधियों के सफाये के लिये एनकाउंटर अभियान चलाया तो उस सूची में कुख्यात अपराधी विकास दुबे का नाम क्यों नहीं था। वह अपराधियों के प्रति सरकार की कथित जीरो टॉलरेंस नीति से अछूता क्यों रहा। क्यों भाजपा के बड़े नेताओं के साथ उसके चित्र सुर्खियां बन रहे हैं। सवाल उसकी गिरफ्तारी में देरी को लेकर भी उठे। निस्संदेह इस कांड से बड़े रहस्यों पर से पर्दा उठना अभी बाकी है।