अनिश्चय में ब्रिटेन
शनिवार को ब्रिटेन की संसद ने एक बार फिर अपने प्रधानमंत्री को निराश किया। ब्रिटिश पीएम बोरिस जॉनसन द्वारा पेश किए गए ब्रेग्जिट संबंधी समझौते की पुष्टि फिर टल गई। ब्रेग्जिट यानी यूरोपियन यूनियन (ईयू) से ब्रिटेन के अलग होने की समय सीमा 31 अक्टूबर करीब आ गई है। ब्रिटिश संसद के ताजा रुख का संदेश यह है कि प्रधानमंत्री जॉनसन ईयू से समय सीमा एक बार फिर बढ़ाने का अनुरोध करें, मगर जॉनसन फिलहाल इसके लिए तैयार नहीं हैं। वह संसद से अपना समझौता प्रस्ताव पास कराने की एक और कोशिश करने के मूड में हैं। देखना होगा कि उनके प्रयासों का क्या नतीजा निकलता है।दिलचस्प है कि 2016 में ब्रेग्जिट पर जनमत संग्रह के ठीक बाद ब्रिटेन की जो स्थिति थी, उसके सामने जो चुनौतियां आ खड़ी हुई थीं, जो खतरे दिख रहे थे आज भी वे ज्यों के त्यों हैं। समझौते की कोई सूरत नहीं दिख रही है, नो डील ब्रेग्जिट एक ऐसी आशंका के रूप में सिर पर खड़ा है जो कभी भी सचाई में तब्दील हो सकती है। एक और जनमत संग्रह कराकर ईयू से निकलने की इस पूरी कवायद से ही जान छुड़ाने की वकालत करने वाले भी कम नहीं हैं। कुछ नहीं हुआ तो एक और चुनाव के जरिये संसद के मौजूदा समीकरण में बदलाव का सुझाव भी है। लेकिन इनमें से कोई भी विकल्प ऐसा नहीं है जिसे संतोषजनक माना जा सके, जिससे देश के सामने मौजूद समस्याओं के हल होने की ठोस उम्मीद हो। ब्रिटेन का यह संकट और असमंजस अकेला उसका नहीं है। यह ईयू का भी संकट है और मौजूदा हालात में विश्व अर्थव्यवस्था के लिए भी चिंता की एक वजह बना हुआ है। यह इतिहास का एक ऐसा दुर्लभ उदाहरण है जो बताता है कि कैसे आबादी के अलग-अलग हिस्सों की छोटी-छोटी गलतियों की वजह से अच्छा भला चलता हुआ कोई देश अचानक ऐसे दलदल में फंस जाता है जिससे उसका निकलना असंभव लगने लग जाए। ब्रिटेन की राजनीति में ब्रेग्जिट की मांग करने वाली एक धारा काफी पहले से रही है, लेकिन पिछले कुछ समय से उसका आम लोगों के बीच प्रभाव बढ़ता हुआ दिखने लगा था। ये बातें अब रेकॉर्ड में हैं कि अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए इस धारा के लोगों ने ऐसी बातें भी सार्वजनिक रूप से कहीं जो तथ्यों से मेल नहीं खाती थीं।
जाहिर है, जनमत निर्माण में इन तथ्यहीन बातों की बड़ी भूमिका रही। तत्कालीन प्रधानमंत्री डेविड कैमरन हालात की गंभीरता समझने में चूक गए। उन्होंने सोचा कि एक बार जनमत संग्रह करवा कर इस किचकिच से पिंड छुड़ा लेना बेहतर होगा। ताबूत में आखिरी कील ठोकी उन लोगों के मिजाज ने जो ब्रेग्जिट के खिलाफ होते हुए भी अपना मत प्रकट करने नहीं गए। इन मामूली गलतियों का बड़ा नतीजा यह हुआ कि 51.9 फीसदी वोटों से यानी मतों के जरा से अंतर से ब्रिटेन एक ऐसी भूलभुलैया में फंस गया है जिससे निकलने की कोई राह उसे तीन साल बाद भी नहीं मिल पा रही।